श्री जैन स्वेताम्बर तपागच्छ संग का वार्षिक मुख पत्र | Shri Jain Swetamber Tapagacch Sangh Jaipur Ka vaarshik Mukh Patra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सप्रसिद्ध नियुक्तिकार गोविदाचाय वन गये । जिनागम के प्रभाव से ही आचाय भगवान्‌ हरिभद्रमूरिजी महाराज 1444 शास्त्र के रचयिता वनं । मटाविद्धान्‌ पुरोहित हरिभद्र ब्राह्मणको ज्ञान की पिपासा थी, इसलिए उनको प्रतिना थी कि--जगत्‌ का कोई भी शास्त्र में न समभ पाऊं तो उसे समभने के लिए चाहे किसी भी व्यक्ति का गूलाम ही क्यो न बनना पड़? किन्तु जान प्राप्ति करलूं ।' इनको एक बार ऐसा अवसर श्राया कि-- जैन शास्त्र की चक्की दृग... गाथा का भ्र॒य॑ वे न समझ पाये । फिर इसे समभने के लिए हरिभद्र ब्राह्मण भ्रपनी प्रतिज्ञा से एक कदम भो पीछे नहीं हटे । गृहस्थावस्था के कपड़े उतार कर साधुपन का वेश स्वीकार फर लिया । क्‍यों ? एक জিলামল की गाथा का प्रथ॑ जानने के लिए। हमें तारित्र लेना हो तो किस हेतु से लेना ? मोक्ष के लिए प्ररे ! मोक्ष तो वराद में मिलने वाला है, परन्त चारित्र-साधपन लेना है तो तरन्त किस हेत के लिए लेना ? कहिए, जिनागम का जान प्राप्त करने के लिए। ऐसी ज्ञान- प्राप्ति यह फ्रेसा सुन्दर श्र सर्व श्रेष्ठ ध्येय ! फिर प्रापु सफ लिए भी चारित्र श्या नही सेन? कहिए जिनागम के ज्ञान की ऐसी भूर-लगन नहीं है। पयों नहीं है ? दिसा आहिए किपैसे बिना नहीं चले, टमलिए पसे को लगने है, झिन्‍्तु 'जिनागम का शान मः विना चत एमा মল इमलिर टसकी भरा्लगन नारी है । भष, प्रतिजा यानौ प्राण ! हरिभद्र पुरोहित के आत्मा में क्या बसा होगा ? “मेरी प्रतिज्ञा ! भं मानव} मानवी को प्रतिना पालन करनी ही चादिए । यहं सद्गति का मार्ग है। इसमें मार्गनुसारिता है। मानवता है इसके लिए ऋद्धि वेभवको हानिभ्राए तो भी परवा नहीं, किन्तु शास्त्र ज्ञान के लिए की गयी पवित्र प्रतिज्ञा का भंग नहीं होना चाहिए ।” इसके लिए उन्होंने चारित्र লিনা | चारित्र लेकर ऐसा शास्त्राध्ययन किया, इतना अध्ययन किया कि समर्थ शास्त्रकार महान आचार्य बनें । जैन शासन की वेनमून विशिप्टता जानने के बाद उन्होंने बेघड़क जाहिर किया कि--'यह जिनागम ! जगत्‌ म कहीं भौ देखने को नहीं मिले, ऐसे ये शास्त्र हैं! इनका ज्ञान माने ज्ञान का महासागर ! मेरी चौदह विद्या तो जिनाग्रम के विशाल 14 पूर्व के ज्ञान के आगे कुछ नहीं है ।' यद्यपि (पूर्व शास्त्रों का ज्ञान श्राज नष्ट ही गया है, फिर भी नष्ट हुम्ना तो भी भरुच ! फरवतूटा भी सोने का धड़ा ! जो भ्रागम मौजद है, इसके भी ग्रपार গাল को देखकर वे पुकार करते हैं--- प्रणाहा कह हुंतन, जद गे हतो जिशागमो ? 1, হা “सचमुच ! ऐसे जिनागम के शरणा के बिना में सर्वेथा प्रनाथ ही লা গরীব इससे मद्-प्रलान मं फसकःर टस भयंकर भयाटयी में मारान्मारा फिर कर वमौ मरता} धन्य है जिनागम ने मृभे হা लिया।




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