सूरदास का काव्य वैभव | Surdas Ka Kavya Vaibhava

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Surdas Ka Kavya Vaibhava by डॉ. मुंशीराम शर्मा - Dr. Munsheeram Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अआचाये वललभ और महात्मा सूरदास ११ ५ कादमीरी तथा महाराष्टीय भटो का एक वगं अपने को सारस्वत कहता है । ब्रह्मभट्टरों के गोत्र को जाँचने से ज्ञात हुआ कि इनके যা জন্য ब्राह्मणों के समान ही हैं। ऐतिह्य के ज्ञाता चन्दवरदाई को भी सारस्वत” ही मानते हैं । सूरसौरभ में हमने एतदविषयक पुष्कक सामग्री एकत्र कर दी है । ऐसे उच्च वंश में उत्पन्न होकर सूरदास जिस पथ के पथिक बने, वह उनके आभिजात्य के अनुकूल ही था | 1 পিন: (নট শর পক সক कोपी 3 भे कि উদ भक्तिधारा सूरदास के समय में ब्रजमण्डरू भक्ति प्रधान सम्प्रदायों का केन्द्र बन रहा था । यह्‌ भक्ति कतिपय विद्वानों के अनुसारः दक्षिण से उत्तर मे आई। भक्ति का विकास' ग्रन्थ में हमने भक्तिधारा को वेदकाल से ही प्रारम्भ हुआ निश्चित किया है । यह अवध्य सत्य है. कि हिन्दी के भक्तिकाव्यकाल का उन्नयन जिन आचार्यों द्वारा हुआ उनमें रामानन्द जी को छोड़कर सब दक्षि- णात्य थे। आचाये शंकर, रामानुज, माध्व, विष्णुस्वामी, निम्बाक, वल्‍्लभ ! सभी दक्षिणात्य हैं | बेद के प्रति सबकी द॒ढ़ आस्था है। वेद में जो प्रार्थनायें आती हैं उनमें मानव-हृदय की अतीवकातर परन्तु शाश्वत पुकार अन्तहित : है । 'भक्ति तरंगिणी! और “श्रुति संगीतिका” में वेदमन्त्रों के जो गौतानुवाद प्रस्तुत किये गए हैं उनमें भाव सरित भक्त-हृदय का आत्म-निवेदन अपने चारु रूप में प्रस्फुटित हुआ है । इन भावनाओं में गैयक्तिक ही नहीं सामाजिक १. काव्योपजीवी तथा वैदिक ब्राह्मणों ने मिलकर किसी समय লজ आसपास अपना एक वर्ग बतायाथा जिसे ब्रह्मभट्ट कहते हैं। सूत्र मागधों के साथ इस वर्ग का कोई सम्बन्ध नहीं है । यद्यपि भट्ट दाब्द से वे भी अभिहित होते हैं । २. कलो खल भविष्यन्ति नारायण परायणाह क्वचित, क्वचित, महाराज द्राविणेषु च भूरियाः भागवत ११-५-२८-२३९ ॥ | ५ | 13 মধ ष दक्षिण के आलवार अपनी भक्ति भावना के लिए पख्यात हैं । इनकी सतियाँ भी दक्षिण के वेष्णव मन्दिरों में स्थापित हैं । आन्दरत्त का नाम | इनमें विशेष रूप से प्रख्यात है ।




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