प्रकृति से वर्षा ज्ञान | Prakriti Se Varsa Gyan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
382
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रत्तावना
ओधय् भा ब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवचंसी जायताम् । भा
राष्ट्र राजन्यः चुर इषव्योऽतिन्याघी महारथो जायतासू ॥
दोस्ध्ो धेनुवोढा नड्वानाशुः सब्ति पुरन्धर्योषा जिष्णु रथेष्ठाः
सभेथौ युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम् । निकामे निकामे
नः पर्जन्यो वषत फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम् योगक्षेमो
नः कल्पताम् ॥ यजुवद श्र ० २२ मंत्र रर
हे ब्रह्य! रट मँ ब्राह्मण ब्रह्मवर्चस्वी उत्पन्न हो औौर
क्षत्रीय-वगं वीर, घनुर्षारी, न रोग एव महारथौ उत्पन्न हों । শী হুষ্ঘ
देने वाली, बेल भार ढोने वाला रश्व शीघ्रगामी; बनिता सूप-गुण
सम्मत, रथो जयशील उत्पन्न हो । यजमान का युवा पत्र सभा-त्रिय
एब वीर उत्पन्न हो “समय-समय पर पजंन्य वर्षा करता रहे ।” हमारे
लिये शोषधियें फलवती बन कर पकती रहे और हम इस प्रकार से'
योग-क्षेम का निर्वाह करते रहें ।
भारत की बहुमूल्य-निधि वेद के इस एक भाग में की गई
मानव हृदय को यह एक प्रार्थना है। जिसमें समय-समय पर पर्जन्य
वर्षा करता रहे जिससे हमारी वन-सम्पदा-वनस्पतिये, भन्नादि भली
प्रकार से पक कर सृष्टि के प्राणियों को सुख पहुँचावें, कहा है ।
भारतीय साहित्य में ऐसा कोई विषय क्षेष नहीं छोड दिया
गया है कि जिसके कारण यह अ्पूर्ण प्रतीत हो । वैदिक-काल के
पदचात् के समय में भी जनपदीय भाषाभों के साध्यम से जन-हिलकारी
विचार सदा व्यक्त किये जाते रहे हैं जो, हमें खोज करते पर तंत्कालीन
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