प्रकृति से वर्षा ज्ञान | Prakriti Se Varsa Gyan

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Prakriti Se Varsa Gyan  by जयशंकर देवशंकर शर्मा - Jayshankar Devshankar Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रत्तावना ओधय्‌ भा ब्रह्मन्‌ ब्राह्मणो ब्रह्मवचंसी जायताम्‌ । भा राष्ट्र राजन्यः चुर इषव्योऽतिन्याघी महारथो जायतासू ॥ दोस्ध्ो धेनुवोढा नड्वानाशुः सब्ति पुरन्धर्योषा जिष्णु रथेष्ठाः सभेथौ युवास्य यजमानस्य वीरो जायताम्‌ । निकामे निकामे नः पर्जन्यो वषत फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्‌ योगक्षेमो नः कल्पताम्‌ ॥ यजुवद श्र ० २२ मंत्र रर हे ब्रह्य! रट मँ ब्राह्मण ब्रह्मवर्चस्वी उत्पन्न हो औौर क्षत्रीय-वगं वीर, घनुर्षारी, न रोग एव महारथौ उत्पन्न हों । শী হুষ্ঘ देने वाली, बेल भार ढोने वाला रश्व शीघ्रगामी; बनिता सूप-गुण सम्मत, रथो जयशील उत्पन्न हो । यजमान का युवा पत्र सभा-त्रिय एब वीर उत्पन्न हो “समय-समय पर पजंन्य वर्षा करता रहे ।” हमारे लिये शोषधियें फलवती बन कर पकती रहे और हम इस प्रकार से' योग-क्षेम का निर्वाह करते रहें । भारत की बहुमूल्य-निधि वेद के इस एक भाग में की गई मानव हृदय को यह एक प्रार्थना है। जिसमें समय-समय पर पर्जन्य वर्षा करता रहे जिससे हमारी वन-सम्पदा-वनस्पतिये, भन्नादि भली प्रकार से पक कर सृष्टि के प्राणियों को सुख पहुँचावें, कहा है । भारतीय साहित्य में ऐसा कोई विषय क्षेष नहीं छोड दिया गया है कि जिसके कारण यह अ्पूर्ण प्रतीत हो । वैदिक-काल के पदचात्‌ के समय में भी जनपदीय भाषाभों के साध्यम से जन-हिलकारी विचार सदा व्यक्त किये जाते रहे हैं जो, हमें खोज करते पर तंत्कालीन




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