वान्ड़य - विमर्श | Wanday Vimarsh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कार्य काव्य का स्वरूप काव्य के तीन पन्न होते दृति, कर्ता और ग्राहक ( पाठक, গীবা या दशक ) । इन्हीं तोनों पत्तों के विचार से काव्य के स्वरूप, प्रयोजन डतु ्चादि का विचार किया जातादहै। काव्यका नाभ लेते ही सबसे पहले उसके स्वरूप या लक्षण की बात आती है। लक्षण दो प्रकार के होते हैं--बहिरंग-निरूपक ओर अंतरंग-निरूपक | बहिरंग-निरूपक लक्षण उसे कहें गे जिसमें विषय या वस्तु का बोध कराने ङ्के, लिए उसके बाह्य चिहौ का वणन या उल्लेख किया गया हो और शअसतरंग-निरूपक लक्षण उसे मानगे जिसमें वस्तु के आभ्यंतर गुणों की च्ची की गई हो | अत्तः काव्य का लक्षण दो ढंग का होता है--बाह्य या करशित्मक ओर आभ्यंतर या सूत्रात्मक । पहले म केवल काव्य के बाहरी रूप का, उसके अवयवो के संघटन का, उल्लेख रहता है आर दुसरे मेँ कोई ऐसी विशेषता लक्षित कराने का प्रयत्न किया जाता है जो केवल क्राव्य मेँ हो पाई जाती है, यदि कहा जाय कि जो शब्दाथ ( रचना ) दोष-रहित, गुणसहित ओर अलंकार से प्रायः युक्त हो वह्‌ काव्यः है, तो माना जायगा कछ काव्य के अवयवबों का वरेन सात्र किया गया है। काव्य में शब्द और अथं की योजना रहती है। ये दोनों अन्योन्याश्रित होते हं । शब्द्‌ विनः अथ के नहीँ रह सकता और अथ की अभिव्यक्ति बिना शब्द के नहीं हो सकतो।* इसलिए यदि यह कहा जाय कि काव्य वह है जिसमें शब्द १ तददोषौ शन्दाथोँ खगुखावनलंक्रती पुनः कापि--कान्यप्रकाश । २ वागर्थाविव संपृक्तौ--रधुवेश । गिरा श्रस्य जलं बीचि खम, कदिश्रत भिन्न न भिन्न--रामचरििमानस)




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