भगवान कौटिल्य | Bhagvaan Kotilya

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Bhagvaan Kotilya by कन्हैयालाल मुंशी - Kanhaiyalal Munshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कन्हैयालाल मुन्शी १७ सुप्तोह्ा उठी । अत्त-व्यस्‍्त परिधानो को ठीक किया और दैन्य भाव से मगध नरेन्द्र की आवभयत के लिए तत्यर हुईं क्या युवराज आंभि साथ में होगे! नेत्रो के सामने पैरते तब्शिल्ला के गिरि गो को महाय्‌ प्रयास से उसने दूर किया । ऊँचा, काला, सनायुयुक्त देहः, विषय-लालसासय बाहर निकली हुई वदी-बड़ी श्रोखे, छोय-खा ललाठ, श्रौर लम्बे-लम्बे केश, खरूपवान होते हुए भी अनाकर्षक-सुख--यह सब मगध के नरेन्द्र दिर्ण्यगुत्त की ओर खतः ध्यान आकर्षित करते थे | उसकी चाल चोरो की सौ थी | उसके श्रधरों पर श्र पितामह की त्थूलता थी । महत्ता और अधमता का प्रतीक-स्वरूप था वह । वक़नास दे पपूरां हास्य अधरों पर खींचे हुए पीछे-पीछे आ रहा था, उसके पीछे राह्षत था । सुमोहा ने इन तीनों शी श्रोर देखा और उसका खी हृदय भय से आतंकित हो उठा | लेसे कले विषधर ने चेर लिथा दो | वद हाथ जोड़े खड़ी रही | নহাইনী 1 নট उपहात करता हुआ बोला | उसके बोलने का ढडडू अभिमानयुक्त था | (पानाय { कख षमोदा ने कदा 1 वोलो, क्या दोंगी ! मैं बधाई लाया हू ॥ भिक्या वोलें! मेरे पास देने को क्या है?! वह मानपूर्वक चोली। परन्तु उसके खर में से कहता दूर न होने पाई थी | वक्रनास | महादेवों बहुत लजाती हैं |? अन्नदाता | बढ़े घरों के सुलक्षण हैं |! तिरतकार से सकर २




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