समाजशास्त्रीय चिन्तन के आधार | Samaj Shastriya Chintan Ke Aadhar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
277
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)सामाजिक दर्शन से समाजशास्त्र की दिशा में सक्रमण, 9
1.2 ता्किंकता (९०९००19) प्रबोधन युग के सामयिक वेदानि कौ दूसरी
बौद्धिक देन तार्किकता को अध्ययनों में महत्त्वपूर्ण बताया है । इठ विचारको ने यह सुझाव दिया
कि मानव एक अनिवार्य रूप से तार्किक प्राणी है, अत: सामाजिक मस्थाओ तथा प्रकृति के अध्ययन
के लिए तर्क को मानदण्ड के रूप मे प्रयुक्त करना चाहिए। मानव के इस तार्किकता के गुण के
कारण उसे उसके विचारों और कार्यो के क्षेत्र में स्वतत्रता प्राप्त हो सकतो है।
1.3 निपुणता (70०८॥09)-प्रयोधन युग के सामाजिक विचारको को यह मान्यता
थी कि मानव उत्कृष्टता प्राप्त करे में समर्थ है। मानव तार्किकता के आधार पर एव वैज्ञनिक
पर्य कै द्वा सामाजिक परम्पराओ का मूल्याकन कर सक्रता है । उसमें सामाजिक परम्पराओ
को यरिवर्तित करने की क्षमता है।इस क्षमता के द्वारा मानव सावाजिक परिवर्तन करके अधिक
स्वतत्रती प्राप्त कर सकता दै ।चह अपनो सृजनात्मक शक्तियो को अधिक व्यावहारिक एव उपयोगी
बना सकता है।
समाजशाम्त्र के उद्भव एवं विकास पर प्रवोधन युग के सामाजिक विचारकों और
दार्शनिक्रों ने उपर्युक्त बौद्धिक सामर्थ्य प्रदान करके उल्लेखग्रेय योगदान दिया है।
२. प्रयोधन युग के वाद का बौद्धिक प्रभाव (1११६।९५।७० 17२1 ०। एन
ছা1811৫/07170109৫)- সীঘন মুখ কি মাহ ক सामाजिके विचारको एव चिन्तको ने कुछ
और बौद्धिक अवधारणाओ से सम्बन्धित साहित्य प्रदान किए हैं। इस साहित्य का प्रभाव यूरोप
मे समाजशास्त्र के प्रादुर्भाव पर पडा जिसे निम्न तीन शोर्षको के अन्तर्गत वर्णित किया जा सकता
है--0) अध्ययन का दर्शन, (॥) उद्विकासीय सिद्धान्त, एवं (॥॥) सर्वेक्षण।
2.1 अध्ययन का दर्शन (201050॥५ ण॑ $000/)--19वीं शताब्दी का काल जीव
चैज्ञॉनिक प्रभुत्वका काल कहा जा सकता है ।इस काल के अध्ययन का दर्शन मुख्यत: इस मान्यता
पर आधारित रहा कि समाज सरल अवस्था से जटिल अवस्था मे परिवर्तन होता है, जो निचित
चरणो मे होता दै 1 समाजशास्तियो ने धी इन मौलिक अवधारणाओं को अपनाया ओर समाजशास्त्र
भे समाज संस्कृति ओर उसके विभिन अगो के उद्विकासीय प्रारूप विकसिते किए्। बटिमोर
के अनुसार सामाजिक विचाएको ने समाज के मात्र सास्कृतिक, आर्थिक एव राजनैतिक पक्षो का
ही अध्ययन नहीं किया जैसा कि पूर्व के विचाएक करते आए थे, बल्कि समाज को एक सम्पूर्ण
इकाई मानकर अध्ययन करने पर जोर दिया। इस जैविकीय उद्विकासीय नवीन अवधारणा का
प्रयोग अनेक समाजशास्त्रियों ने अपने-अपने अध्ययनों मै किया। उनमे उल्लेखनोय कुछ
सपाजशास्त्री--कॉम्ट, स्पेन्सर, दुर्खोम, पावर्स, बेब्लन, टायल, मार्गन, परेणे, स्पेगलर आदि
শিলাহ जा सकते हैं।
2.2 उदूविकासीय सिद्धान्त (ग७ णाय) फरण) प्रबोधन परचात् काल के
दार्शनिको ओर विचारकों ते उद्विकास के सिद्धान्त प्रतिपादित किए। उन्होंने विभिल क्षेत्रों से
उद्विकास का क्रम सरल से जटिल एव निश्चित चरणो में बताया। इस विचारधाग का प्रभाव
समाजशास्त्र पर यडा जिसके परिणामस्वरूप समाजशास्त्र मे भो समाज, परिवार তে
विभिन संस्थाओं को अध्ययन उद्विकासीय दृष्टिकोण से किया जाने लगा। समाजशास्त्रियों ने
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