कसाय पाहुड़म | Kasaya Pahudam

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Kasaya Pahudam  by दिगम्बर जैन - Digambar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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» ১৪০ तथा सं०|श्रो पं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री एवं बालचन्द्र शास्त्री के पूर्ण सहयोग ने प्रगति दी थी। तथा मध्य में डॉ० आ० ने० उपाध्ये भी डॉ० हीरालाल के परम सहयोगी हो गये थे। संघ का व्यापक रुप-- उक्त प्रकार से साहसिक एवं बिबेकी जैन-जागरण के अग्रदूत पंडित जी ( रा० कु० ) के उपदेशक-विद्यालय के स्नातक स/श्री १० सुरेशचन्द्र जी, इन्द्रचन्द्र जी, लालबहादुर शास्त्री, धर्मंचन्द्र, नारायण प्रसादादि तत्त्वोपदेशक तथा मास्टर रामाननद, भेयालाल भजनसागर, पं० विनयकुमार, (जीवन-धनदानी) ताराचन्द्र प्रेमी, सुभाषचन्द्रादि भजनोपदेश समाज पर छा गये थे। पंजाब के स्कूलों की पाठ्य-पुस्तकों में मुद्रित “जैनधर्म बौद्धघर्म को शाखा है, हिसार शिक्षा विभाग का 'जैनियों को उच्च जाति में शुमार न करने” का परिपत्र, आदि जैनत्व को अवज्ञाकर प्रवृत्तियाँ भी उनकी दृष्टि से ओझल नहीं रहीं। और इस प्रकार संघ ने भारतीय इतिहास संशोधनादि बौद्धिक कार्यों को अनायास ही किया था। १९३२ में कुड़ची ( वेलगांव-मु बई प्रान्त ) में हुए जैनों के दमन ओर जिनमूतिभंजन के विरुद्ध तो संघ ने जिलाधिकारो को ही नहीं अपितु प्रान्तीय सरकार को भी हिला कर न्याय करने के लिए बाध्य किया था । इसी प्रकार मांडवो (सूरत) उदगीर (हैदराबाद), इन्दौर (होल्करराज्य) में दि० मुनियों के विहार पर लगे सरकारी आदेझ्षों की धज्जियाँ ही नहीं उड़वा दी थीं, अपितु भगवान वीर का अचेलक धर्म', “दिगम्बरत्व एवं जेनमुनि' आदि कट प्रकाशन करा के छिष्नदेवत्व के रहस्य की प्रविष्ठा भी की थी । प्राग्वेदिक श्रमणविद्या को पठन-पाठन में छाने के लिए ब्रह्मणत्व के अभेद्य गढ़, तथा प्राच्य- अध्ययन के प्रमुख केन्द्र गवरनमैट संस्कृत ( क्वीनस्‌ ) काठेज को पंजाब के संस्कृत रिक्षा विभाग के समान जैनदशंन-सिद्धान्त के पःठथध-करम को चलाने क लिए तत्कारोन प्राचायं डं° मंगरदेव शास्त्री के सहयोग से सहमत किया था । जैन विद्या तथा विधा की समस्त प्रवृत्तियों पर स्व पं० राजेनद्रकरमार जी अपने परम सहयोगी पुष्य श्लोक बा० दिग्विजय सिह जी, स्व° पं° कंलाश्च- चन्द्र जी सिद्धान्ताचाय, चेनसुखदास-न्यायतीथं, अजितकुमार शास्वौ तथा अनेक युवक विद्वानों के साथ संघ के उदय ( ९९३१ ) के बाद तीन दशको तक छाये रहे । तथा संघ कौ परिवार समक्ष के कुलपति के समान प्रत्येक साधर्मी को उलझन को अपना समझते थे | तथा सहयोगियों ( लछाल- बहादुर शास्वी भजनसागर, पथिकजी के गपवर्त्यो के निवारक ये। श्रीमानों के जैन-समाजमें धीमान्‌ नेतृत्व तब उजागर हुभा जब कलकत्ता के वीरासन जयन्ती महोत्सव मे उनकी प्रेरणा से 'दि० जेन विदत्‌ परिषद्‌ साकार होकर सैद्धान्तिक विषयों पर मधिकृत वक्ता बनी । जयधवल- मोक्षमागं प्रकाश (खडी बोरी), जेनघमं, रामचरित, वरांगचरित, ईकवरमीमांसा, ऋषभदेवं, आदि संघ कै प्रकारानों के शिखर पर जयधवला के मणिमयौ कलदा को रखने के आद्य मंगलाचरण (जयधवलसंपादन) ने ही उक्त भूमिका को बना दिया धा । जिसे वे करणानुयोग कै सर्वोपरि विद्वान अपने सहाध्यायी पं० फूलचन्द्र जी शास्त्री की वाणिज्योन्मुखता का निश्रह करके आजीवन जिनवाणी सेवा- साधना का सुयोग मिलाकर के कर चुके थे। क्योंकि आधुनिक जेन समाज संघटन के सूत्रधार, परिवार की उदात्त परम्परा के सर्वोपरि निर्वाहक श्रावक-शिरोमाण साहु शान्तिप्रसाद णी ने जयधबला' सम्पादन-प्रकाशन को मूर्तिग्रन्थमाला से भी बढ़कर अपना कार्य माना था। तथा एक आकस्मिक-स्थिति और आत्मनिहक्न॒वी स्वभाव के कारण आजीवन अपनी जयधवला-प्रकाशन की आयद्य-ब्रोतता को अप्रकट ही रखा है। 'श्रेयांसि बहु विष्मानि' के अनुस(र प्रथमखंड के बाद द्वि°




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