युगवीर निबंधावली खंड २ | Yugveer Nibandhavali Khand - Ii

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राकथन १२ दूसरे विभागमे तीन गरन्योकी तथा कतिपय फुटकर लेखो, कवितामो, कथनो आदिकी समालोचनाएँ हैं। प्रो० घोषाल-कृत “द्रव्यसग्रहके' अग्रेजी सस्करण तथा प्रवचनसारके डा० उपाध्ये द्वारा सुसम्पादित सस्करणकी समालोचनाएँ पढकर भलीमांति स्पष्ट हौ जाता है कि एक साहित्यिक समालोचकको कितना सुविज्ञ ओर सक्षम होना चाहिये मौर एकं वास्तविक समालोचनके लिये कितना कुछ श्रम एवं सावधानी अपेक्षित है। समा- लोचनाका उद्देश्य समालोच्य-कृतिके वाह्य एवं अभ्यन्तर समस्त गुण- दोपोको निष्पक्ष किन्तु सहृदय दृष्टिसे प्रकाशित करना होता है । जो ऐसा नही करता वह समालोचकके कर्तव्यका पालन नही करता । वतेमान युगमे जैन समाजमे इक्ष कोटिका समालोचक एक ही हुआ हे, और वह मुस्तार सा० हैं। प्राय अन्य किसी विद्वानते इस विपयमे उनका अनुसरण नही किया, शायद साहस ही नहीं हुआ। प्रथम तो, जितना समय और श्रम किसी गभीर ग्रन्थके आ्योपान्त सम्यक्‌ अध्ययनके लिये, उसमें निरूपित या विवेचित त्रुरिपूणं अथवा भ्रामक जँचनेवलि कयनो, तथ्यो मादिके शद्ध. रूपोको खोज निकालनेके लिये, तद्धिपयक अन्य अनेक सन्दर्भोको देखनेके लिये, विवेचित विपय पर अतिरिक्त अथवा विशेष प्रकाश उालनेकी क्षमता प्राप्त करनेके लिये ओर अन्तमें आलोच्य कृतिका समुचित मूल्याद्भुन करनेवाली विस्तृत समालोचना लिखनेके लिये अपेक्षित है वह्‌ किसी विद्वातके पास है ही नही, विशेषकर जबकि समालोचककों उससे कोई आर्थिक लाभ भी न हो । फिर भी यदि कोई इस दिशामें कुछ प्रयत्न करता है तो वह कृतिके लेखक और प्रकाशक दोनोका ही कोपभाजन নল जाता है। समालोचनाके नामसे लेखककी और उसकी क्वतिकी प्रशसाके खूब पुल वाधिये, वह प्रसन्न है । किन्तु यदि कटी आपने उसके बुरी तरहसे खटकनेवाले एकाघ दोषका भी उल्लेख कर दिया--चाहे कितनी ही शिष्ट- सयत भाषामें क्यो न किया हौ--तो गजृब हौ जाता है सदैवके लिये लेखक समालोचकका शत्रु बन जाता है। ऐसा इस जैन-समाजमें ही होता है, उसके बाहर तो समालोचना साहित्यिक प्रगतिका, चाहे वह किसी भी ज्ञान-विज्ञानससे सबधित क्यों न हो, एक अत्यन्त आवश्यक एवं उपयोगी




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