अन्तर के प्रतिबिम्ब | Antar Ke Pratibimb
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
5 MB
कुल पष्ठ :
160
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१. बन्दर कौ पकड़
एक बन्दर घरो की अट्टालिकाश्रो पर इधर से उधर छलाग
लगा रहा था। लगाते २ उसने एक मकान की छत पर छोटे मुह
वाली मटकी मे चने (भू गड़े) पडे हुए देखे, जिसे देखकर वह ललचा
गया, उन्हे पाने के लिये बन्दर ने मटकी में हाथ डाला भौर मुद्ठी
भर ली। लेकिन जब वह मुट्ठी बाहर निकालने की कोशिश करता
है तो वह निकल ही नही पाती है, तब वह चीची करता है ।
जब हाथ मठकी मे नही डाला था, मुट्ठी नही भरी थी। तब
सुखी था, स्वतत्र था । कोई टेन्शन नही था। लेकिन ज्योही मुट्ठी
भरी और उसे नही निकाल पाने के कारण दुखी हो गया, परतत्र
हो गया, मानसिक टेन्शन से ग्रस्त हो गया ।
बधुओ ! वह तो विवेक विकल बन्दर था, लेकिन श्राज के
अधिकाश मानव व्या कर रहे हैं ? क्या वे भी इसी प्रकार से तो
मुट्ठी नही भर रहे हैं ” श्राज घन की पकड़, परिवार की पकड, न मालूम
कितनी श्रधिक बढ़ती जा रही है । जब तक यह पकड रहेगी, तव तक
कोई भी मानव सुखी नही हो सकता ।
बंदर की एक पकड ने ही उसे दु खी बना दिया तो आज के
पुरषो ने न मालूम कितनी पकड कर रखी है 1
सुखी बनने के लिये भौतिकता की पकड छोडनी होगी ।
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