तीर्थकर विचार मासिक | Tirthkar Vichar Masik

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Tirthkar Vichar Masik  by नेमीचन्द्र जैन - Nemichandra Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about नेमीचन्द्र जैन - Nemichandra Jain

Add Infomation AboutNemichandra Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
पड़ें ही उन्हें श्री शान्तिताथ भगवान का সীল होता । वे नमस्कार करते । जस्त में विज्वारों के मस्यन से संकल्प उभरो ! संकल्प था- है भ्रभो ! आप हीं मुझे इस विषम ज्यर से बचावेंगे यदि मैं बच गया तो आजीवन ब्रह्मचर्य ब्रत धारण करूंगा, महात्मा गांधी जैसा भेरा वेश होगा । धर्म-सेवा और राष्ट्र-सेवा मेरा अविचल त्रत होगा 1 श्री जिनेश्वर की कृपा और संतों के आशीर्वाद से सुरेन्द्र ठीक हो गये । बीमारी में खान-पान का पथ्य पालते-पालते सुरेन्द्र मत से ही सयमी बन गये । ईश्वर-भवित मे अतर्मुख बन गये। ससार के अनुभवों के कारण विषय-वासनाओं से अनासक्त बन गये। जो सस्कार मत पर पहले से ही थे, जो सस्कार बीज रूप में विद्यमान थे, वे अब फल-फूलकर लहलहाने लगे। अनुभव-कोंपलें बढने लगी। ज्ञान-रूपी कुलियाँ खिलने को उद्यत हो उठी । फिर एक चातुर्मास आया ! सन्‌ १९४६ का चातुर्मास !! संयम-मूर्ति, शान-सूर्य महामुनिराज श्री महावीरकीतिजी ने शेडबाल मे ममल-विहार किया। रोग से जर्जर सुरेन्द्रं को मानो अमृत मिल गया । आत्मिक शान्ति की सजीवनी से सुरेन्द्र का पुनर्जन्म हुआ । सुरेन्द्र प्रतिदिन मुनिजी के उपदेश सुनते । रोज उपदेश सुनकर वे कर्मफलों के आवरणो से उबरने लगे। आत्मा के आनन्द में मग्न सुरेन्द्र, मुनिजी के सान्निध्य मे बने रहते । अपटूडेट वेशभूषा मे रहने वाले सुरेन्द्र ने बिलकुल सादा वेश धारण कर लिया । माता-पिता ओौर इष्ट मित्रो को चिन्ता हुई, मगर सुरेन्द्र ने अपने मन की बात औरो पर प्रगट नही की। सारे ग्राम वासियों ने इस परिवर्तन को देखा। सासारिक सुख, मोह-माया को त्याग कर सुरेन्द्र दूसरा ही मागे चुन रहे है, यह देखकर माता-पिता को गहरी चिन्ता होती। सुखो के स्वर्ण-पिजरे मे बन्द मनका हीरामन, पिजरे से उड़ने के लिए तैयार था, वीतरागी बनने के लिए कृत-सकल्प धा । प्रतिदिन नियम से उपदेश सुनने के लिए आने वाले सुन्दर युवक की ओर मूनि महानीरकीतिजी का आष्ट होना स्वाभाविक ही था । सुरेन्द्र की ज्ञान-पिपासा ने उन्हे प्रभावित किया) वे बड़े प्रेम से सुरेन्द्र से बाते करते और उनके बिचारों को सुनकर आनन्दित हो उठते । ऐसे ही एक दिन सुरेन्द्र ने स्व/मीजी से जात-रूप की दीक्षा की याचना की। मुनिजी प्रसन्न थे, मगर सुरेन्द्र की छोटी अवस्था देखकर माता-पिता से अनुमति लेने भुनिञ्नो विश्वानन्द-विशेषांक १७




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now