विप्रदास | Vipradas

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Vipradas by शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय - Sharatchandra Chattopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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वप्रदास ` वि द्विजदास ने चकित होकर पुछा--वन्दना' नाम सुना हुश्रा जान पड़ता है भाभी ! संभव कहीं देखा है, “ठहरो. तो, समाचार पन्न में--एक फोटो भी शायद वात समाप्त नहीं हुई थी वेसे ही महरी धम-धघम करती कमरे में घसकर बोली--'बहू, चुम यहाँ हो ? तुम्हारे एक चाचा श्रपनी लड़की लेकर वम्बई से आ पहुँचे हैं। बाहर कोई है नहीं, बड़े बाबू भी नहीं । मैनेजर बाबू ने उन्हें नीचे वाले कमरे में बिठा दिया है ।/ घटना श्रचिन्तनीय है । अरे, क्या कहती है ?' कहते हुए सती तूफानी चाल से कमरे से बाहर निकल गई | ह्विजदास पीछे-पीछे गया । . पूरी साहवी पोशाक में कुर्सी पर बठे हुए अधेड़ पुरुष शोर बीस-इक्कीस वर्ष की कन्या उन्हीं की बगल में खड़ी दीवार पर टंगे जगद्धात्री देवी के एक सुन्दर चित्र को बड़े ध्यान से देख रही थी। सोलहो श्राने उसकी पोशाक मेमों की तरह व भी हो, परन्तु वह सहसा बद्भाली कन्या भी दीख न पड़ती थी । खासकर शरीर का रंग सफेदी लिए हुए इतना गोरा, बदन की बनावटी सुडोल झोर मुंह पर श्रगोखा रूप | अभ्रभी सती जो गवेपूवेक देवर से कह रही थी कि उसका रूप तो सास की दृष्टि में पड़ेगा ही, वास्तव में यह बांत्त सही है । बहिन की सुन्दरता परं गवं किया जा सकता हं । कमरे मे जाकर सती ते प्रणाम करके कटा--“मभले चाचा, वहत दिनों बाद बेटी के यहाँ आये ?' वे उठे और सत्ती के सिर पर हाथ रखा, और हँसकर बोले---वेटी, कब चाचा को बुलाया था, जो नहीं आया ? कभी आने के लिए कहा भी है ? जव स्वयं ग्रा पहुंचा तो प्रव कह रही हो कि चाचा का श्राता श्रव दुभा! द्विजदास को देखकर पूछा--' कौन हये ?' पीछे की ओर देखकर सती ने कहा--मेरे देवर द्विच ह




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