श्रीकान्त [भाग-२] | ShriKant [Bhag-2]

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ShriKant [Bhag-2]  by शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय - Sharatchandra Chattopadhyay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ४५ ) तबलची नथा अन्य दो-एक भले आदमी भी उन्हीं के साथ साथ प्रस्थान कर गये जूमींदार साहब के मन का भाव श्रकसमात्‌ क्यों वरिगड़ गया, इसका कु भी पता मैन पा सका | रतन ने आकर कहा--मा जी, बावू का बिछोना कहाँ बिदाया जाय !? पियारी ने खीक के साथ कहा-क्या कोई ओर कमरा नहीं है ? मुझसे ভিলা पूछे क्‍या तू रत्ती भर भी अपनी बुद्धि नहीं जच कर सकता रतन ? जा यहां से ! यदह कहती हुई रतन के साथ ही पियारी भी चली गई । मैंने अच्छी तरह देख पाया, मेरे आकस्मिक शुभागसन से इस घर का भाव-केन्द्र बहुत अधिक विचलित हो उठा है।' किन्तु पियारी ने दम भर बाद लोट आकर मेरे मुंह की ओर कुछ देर ताकते रहने के उपरान्त कहा--इस तरह अचानक केसे आना हुआ ९ मैंने कहा--देश-गॉव का आदमी ठहरा; बहुत दिनों से देख न पाया था, इसी से अत्यन्त व्याकुल द्वी उठा था बाई जी !. पियारी का मुँह ओर गम्भीर दो गया। मेरी इस दिल्लमीः में कुछ भा शामिल न हं!कर उसने कहा--आज रात को यहीं रहोगे न ? मेंने कहा--रहने को कहो तो रहेँ । पियारी ने कहा--मेरा कहना-सुनना क्या है! मगर हो,




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