हिंदी - काव्य में प्रगतिवाद | Hindi Kaya Me Pragtivad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ट हिंदी-काव्य में प्रग्तिधाद कर भपनी श्रद्धा-भक्ति और प्रेम के भाव-पुष्प उसके पुनीत सरणों पर सर्पित किये । देद्मभक्ति की भावना भी कई रूपों में व्यक्त हुई । जैसा कि क जाए हैं इस काल के कवियों ने राजप्रद्यंसा में भी कुछ रम्बनाए का । यह राजप्रदालि भी उस समय देशभक्ति का एक संग समझी जाती थी | राज-व्यवस्था देश की सुख-सम्द्धि का हेतु और राजा जनता के आनंद- मंगढ सें तत्पर थादर्थ व्यक्ति के रूप में मान्य था । इस काल की कई रचनाओं में रानी दिक्टोरिया के बघनों का ससरण दिलाकर शासकों के मन में न्यायप्रियता जागरित कर देवा की आर्थिक दुर्दशा सुधारने की प्रार्थना की राई । पर इस प्रकार की याप्वनाएँ शुद्ध भ्रम प्रमाणित हुई। कवियों ने अपनी स्वनाओं में देश की आर्थिक सौर सामाभिक दुदंशा से उत्पन्न शोभ की व्यंजना करनी आारंभ की । और टैवस के कारण बढ़ते हुए का वर्णन हुआ । विदेशी वस्तुओं के विरोध और स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार में निहित कश्याण और सच्ची प्रतिष्ठा का आभास दिया गया--रहे देश की नाक खदेशी कपड़े पहिनें । देय की तत्कालीन बु्देशा का वर्णन कर भगवान से भारत के द्वार की प्राथना की गई। भारत के शोरवपूण अतीत का स्मरण दिलाकर वतमान के छिए नवीन स्फूरति और प्रेरणा प्राप्त करने का प्रयत्न हुमा । इधर भारतीयों में आत्मसंमान की भावना धीरे धीरे बढ़ती जा रही थी । जब काले सैनिकों ने गोरों के साथ साथ विदेशों में जाक चिंजय प्राप्त की तब इस काल के. कवियों ने हुई का अनुभव किया । मिल्न में उनके विजय प्राप्त करने पर कहा गया-- ऊँचे भये मोंछ के बार ज्यों ज्यों विदेशी सन्ना की आर्थिक दोषण और निर्दयता की नीति. . स्पष्ट होती गई स्वों त्यों भारतेंदु-युग की रचनाओं में देशभक्ति का स्वर




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