हिंदी काव्य में प्रगतिवाद | Hindi Kavya Me Pragtivad

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Hindi Kavya Me Pragtivad by विजयशंकर मल्ल - Vijayshankar Malla

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ दिंदी-काव्य में प्रगतिवाद कर अपनी भ्रद्धा-मक्ति और प्रेम के भाव-पुष्प उसके पुनीत चरणों पर सर्पित किये । देशभक्ति की भावना भी कई रूपों में व्यक्त हुई । जैसा कि कह आए हैं इस काल के कवियों ने राजप्रशासा में भो कुछ रचनाएं की | यह राजप्रदस्ति भी उस समय देशभक्ति का एक अंग समझी जाती थी । राज-व्यवस्था देश की सुख-समद्धि का हेतु और राजा जनता के आनंद- मंगल में तत्पर भादर्ग व्यक्ति के रूप म मान्य था । इस काठ की कई रचनाओं में रानी विक्टोरिया के वष्बनों का स्मरण दिलाकर सासकों के मन में न्यायप्रियता जागरित कर देश की सआार्थिक दुदंदा सुधारने की प्रार्थना की गई । पर इस प्रकार की याष्बनाएं शुद्ध आस प्रमाणित हुई। अब कवियों ने अपनी रघनाओं में देश की आर्थिक सौर सामाजिक दुदशा से उत्पन्न क्षोम की व्यजना करनी सारंभ की । मेंहगी और टैक्स के कारण बढ़ते हुए केश का वर्णन हुआ । विदेशी वस्तुओं के विरोध और स्वदेशी वस्तुओं के व्यवहार में निहित कव्याण सौर सच्ची प्रतिष्ठा का आभास दिया गया-- रहे देश की नाक स्वदेशी कपडे पहिनें । देश की तत्काछीन दुदंशा का वर्णन कर भगवान से भारत के उद्धार दो प्राथना की गई। भारत के गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण दिलाकर वर्तमान के लिए नवीन स्फूर्ति और प्रेरणा प्रास करने का प्रयत्न हुआ | इधर भारतीयों में आत्मसमान की भावना धीरे धारे बढ़ती जा रही थी । जब काले सैनिकों ने गोरो के साथ साथ विदेशों में जाकर विजय प्राप्त की तब इस काल के कवियों ने हुष का अनुभव किया । मित्र मे उनके विजय प्राप्त करने पर कहां गया-- ऊँचे भये सार्य- मोंछ के बार ।? ज्यो ज्यों विदेशी सत्ता की आर्थिक शोषण और निर्दयता की नीति स्पष्ट होती गईं त्यों त्यो भारतेदु-युग की रचनाओ मे देशभक्ति का स्वर




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