औपपातिक सूत्र | Aupapatik Sutr

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Aupapatik Sutr by ब्रजलाल जी महाराज - Brajalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है धनुवेंद प्रभूति लोकिक शास्त्रों का मूल उद्गम ख्रोत वेद हैं, यह बताने के लिए ही यह उपक्रम किया गया हो । भस्तु । भगो का उल्लेखं जिस प्रकार प्राचीन पश्रागम ग्रन्थो में हुआ है श्लौर उनकी सख्या बारह बताई है, वहाँ बारह उपागो का उल्लेख नही हुआ है । नन्दीसूत्र मे भी कालिकश्रौर उत्कालिक के रूप में उपागो का उल्लेख है । पर बारह उपाँगो के रूप में नही । बारह उपागो का उल्लेख बारहवी शताब्दी से पहले के ग्रन्थों मे' नही है । यह निविवाद है कि अगो के रचयिता गणधर है और उपागो के रचयिता विभिन्न स्थविर है। इसलिए अगर और उपाङ्खं का परस्पर एकं दुसरे का कोर्ट सम्बन्ध नही है। तथापि आचार्यों ने प्रत्येक अग का एक उपाग माना है। आचार अ्रभयदेव ने औपपातिक को आचाराय का उपाग माना है। आचार्य मलयमिरि ने राजप्रश्नीय को सूत्रकृताग का उपाग माना है पर गहराई से अनुचिन्तन करने पर जीवाभिगरम और स्थानाग का, सूर्यप्रज्ञप्ति झ्ौौर भगवती का, चन्द्रप्रश्प्ति तथा उपासकदशाय का, वण्हिदसा श्रौर दृष्टिवाद का पारस्परिक सम्बन्ध सिद्ध नही होता । इस क्रम के पीछे उस युग की क्‍या परिस्थितियाँ थी, यह शोधाथियो के लिए भ्रन्वेषणीय है । सम्भव है, जब श्रागम-पुरूष की कमनीय कल्पना की गई, जर्हा उसके अग स्थानीय भ्रागमौ कौ परिकल्पना प्रीर অন सूत्रो की तत्स्थानिक प्रतिष्ठापना का प्रश्न आया, तब यह क्रम बिठाया गया हो । ग्राधुनिक चिन्तकों का यह भी प्रभिमत है कि औपपातिक का उपागो में प्रथम स्थान है, वह उचित नहीं है, क्योंकि ऐतिहासिक दृष्टि से प्रज्ञापना का प्रथम स्थान होना चाहिए । कारण यह है कि प्रज्ञापना के रचयिता श्यामाचायं है जो महावीर निर्वाण के तीन सौ पेतीस मे युगप्रधान श्राचार्य पद पर विभूषित हुए थे। इस दृष्टि से प्रज्ञापना प्रथम उपाग होना चाहिए । हमारी दृष्टि से औपपातिक को जो प्रथम स्थान मिला है, वह उसकी कुछ मौलिक विशेषताओ्रों के कारण ही मिला है | इसके सम्बन्ध में हम प्रागे की पक्तियो मे चिन्तन करेगे । यह पूर्ण सत्य है कि आचाराम में जो विषय चचित हुए दहै, उन विषयो का विश्लेषण जैसा श्रौपपातिक में चाहिए, वसा नही हुआ है। उपाग अगो के पूरक और यथार्थ सगति बिठाने वाले नही है, किन्तु स्वतन्त्र विषयों का निरूपण करने वाले है ! मूधन्य मनीषियो के लिए ये सारे प्रष्न चिन्तनीय है । ग्रौपपातिक प्रथम उपाग है । अगो में जो स्थान प्राचारागका है, वही स्थान उपागो मे ओौपपातिक का है । प्रस्तुत अ्रागसमके दो प्रध्यायहै। प्रथम का नाम समवसरण है ओर दूसरे का नाम उपपात है। द्वितीय अध्याय मे उपपात सम्बन्धी विविध प्रकार कै प्रन चचित है । तदर्थी नवागी टीकाकार प्राचार्य अभयदेव ने भ्रौपपातिक~ वृत्ति मे लिखा है-- उपपात-जन्म देव प्रौर नारकियो कै जन्म तया सिद्धि-गमन का वर्णन से प्रस्तुत्त श्रागमका नाम श्रौपपातिक है१०। विन्टरनित्ज ने औपपातिक के स्थान पर उपपादिक शब्द का प्रयोग किया है। पर झ्ौपपातिक मे जो प्रर्थ की गम्भीरता है, वह उपपादिक शब्द में नहीं है। प्रस्तुत श्रागमकां प्रारम्भिक अश गद्यात्मक है भ्रीर अतिम अश पद्यात्मक है। मध्य भाग में गद्य और पद्य का सम्मिश्रणदहै। किन्तु कुल मिला कर प्रस्तुत सूत्र का भ्रधिकाश भाग गद्यात्मक ही है। इसमे एक ओर जहाँ राजनैतिक, सामाजिक और नागरिक तथ्यो की चर्चाएँ की है, दूसरी शोर धामिक, दार्शनिक एवं सास्क्ृतिक तथ्यों का भी सुन्दर प्रतिपादन हुआ है। इस भ्रागम की यह सबसे बडी সাপ পপ প্র সপ্র शः १० उपपतन उपपातो-देव-नारक-जन्म सिद्धिगमसन च | अतस्तमधिकृत्य कृतमध्ययनमोपपातिकम्‌ । “-भौप प्रभयदेव वृत्ति [ १७ |




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