पाषाण की लोच | Pashan Ki Loch
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
397
श्रेणी :
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भगवतीप्रसाद वाजपेयी - Bhagwati Prasad Vajpeyi
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हरिशंकर - Harishankar
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१२ पाषाण की लोच
आज यह दिन तो न देखना पडता कि मेरा बेटा थोडे से रुपयो के लिये
पने को तडप जाय 1) कुछ इसी तरह के और भी वाक्य उन्होने कहे
थे। लेकिन वे अब आनन्द को याद नही । क्योकि तमी सों पिता को
सहारा देकर अन्दर ले गयी । बीमारी से उठे पिता के लडखडाते पोव जैसे
उसके सामने से चले जा रहे हो !
जिस दिन वह चला था, उस दिन लोगो ने खाना नही खाया था| खुल
कर रो भी नही सके थे। अशकुन जो होगा । परदेश जाते बेटे के सामने कृ
अमंगल सा है रोना। वह अन्दर से आ रहा था। बरोठे में शान्ति सिसक
उठी थी । आतै-आते उसने मा को उसे चुप कराते सुना था--“रोते नही बेटी ।??
और फिर वे स्वय चुप हो गयी थी, इस डर से कि कही वे स्वयं न सिसक
पड़े । तब आनन्द एक हाड-माष, रक्त ओर मज्जा का कस्पुततखा बनगया
था, जिसमें सोचने की चक्ति नही थी । वहु उस्र कवि के समान था, जिसकी
कल्पना के पंख भुलस गये हो | भविष्य उसके समने शून्य था । विद्व
विद्यालय का जीवन जैसे युगो के बाद की चीज हो । उसे तो केवल इतना
याद था कि उसे इलाहाबाद पहुँचना है। बस ।
धर ओर पास-पडोस के रोगो से विदा लेकर जब स्टेशन के लिये, एक
অন के साथ, जो शान्ति की शादी के लिये पहले से खरीदकर
रखा गया था, गाडी पर बेठा और गॉव छोडकर ढाक के जंगलो के बीच
सुनसान लीक पर बढा था, तब उसके मन में एक हलचल हुई थी और
ओधी-पानी एक साथ आ गया था। उसकी आँखो मे मॉ और पिता की
भरी-भरी ओखं धुम नाती थी । उसके चले आने के बाद अब वे
रो रहे होंगे । उसे भी बड़ी ज्ञोर की रलाई छूटी थी, लेकिन वह रो नहीं सका
था । पड़ोस के पृत् भेया गाडी जो हक रहे थे ।-षर पर जाकर करेगे नही !
और तब॒ तब की कल्पना करके उसने अपने ओप रोक लिये थे और
बलात् उव्ती हृदं ओधीको दबाख्या था।
गाडी चलाते-चलाते पूत्त् मैया ने कई बार कुछ कहा था। पर वह
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