सकड़ालपुत्र श्रावक | Sakdaalputra Shravak
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2 MB
कुल पष्ठ :
74
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about जवाहिरलाल जी महाराज - Jawahirlal Ji Maharaj
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)११ सकडालपुतन्रश्नावक-
से चली आती थी। अपनी पेढक आजीविका करता हुआ भी,
वह हृदय का मलिन न था । उसकी आन्तरिक और व्यवद्दारिक
नीति, अन्य गृहस्थो की ছদন্বা खराब न थो! इसके सिवा
अग्नि, मिट्टी, पानी आदि का आरम्भ, महारम्भ भी नहीं कह--
लाता है, तथा आगे यह वात और सिद्ध की गई है, कि सकडाल-
पुत्र महारम्भी नहीं था ।
सकडाल पुत्र की पाँच सौ दूकानें, नगर फे बाहर इसलिये
थीं, कि वर्तन बनाकर पकाने मे जो धुँ होता दै, बह नगरमें
नपैले । नगर में घुआँ फेलने से, नगर-निवसियों के स्वास्थ्य
को हानि पहुँचती है। आज भी यद्द देखा जाता है, कि कुम्हारों
के घर अधिकांश में नगर या आम से वादर दी होते हैं ।
पहले के लोग अपने पास की समस्त सम्पत्ति को बाहर
ही नदी फेला देते थे, किन्तु जितनी सम्पत्ति बाहरव्यापार में-
फैली हुई रखते थे, लग-भग उतनी ह्वी अपने कोष में समय-अस-
मय के लिये सुरक्षित भी रखते थे। उनका व्यवहार, वटन्बृत्त
की तरह होता था। कहाजाता है कि वट-टृत्त जितना
ऊपर उठा हुआ द्वोता है, भूमि से भी अपनी उतनी दी
जड रखता है । पूवै समय के लोग, रेखा टी व्यापार व्यवहार
किया करते ये । श्चाज के बहुत से लोग थोड़ी हैसियत होते हए
भी अधिक हैसियत वाले बनने के लिए, बाह्याडम्बर बढ़ा लेते
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