सकड़ालपुत्र श्रावक | Sakdaalputra Shravak

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Sakadalputra Shrawak by जवाहिरलाल जी महाराज - Jawahirlal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ सकडालपुतन्रश्नावक- से चली आती थी। अपनी पेढक आजीविका करता हुआ भी, वह हृदय का मलिन न था । उसकी आन्तरिक और व्यवद्दारिक नीति, अन्य गृहस्थो की ছদন্বা खराब न थो! इसके सिवा अग्नि, मिट्टी, पानी आदि का आरम्भ, महारम्भ भी नहीं कह-- लाता है, तथा आगे यह वात और सिद्ध की गई है, कि सकडाल- पुत्र महारम्भी नहीं था । सकडाल पुत्र की पाँच सौ दूकानें, नगर फे बाहर इसलिये थीं, कि वर्तन बनाकर पकाने मे जो धुँ होता दै, बह नगरमें नपैले । नगर में घुआँ फेलने से, नगर-निवसियों के स्वास्थ्य को हानि पहुँचती है। आज भी यद्द देखा जाता है, कि कुम्हारों के घर अधिकांश में नगर या आम से वादर दी होते हैं । पहले के लोग अपने पास की समस्त सम्पत्ति को बाहर ही नदी फेला देते थे, किन्तु जितनी सम्पत्ति बाहरव्यापार में- फैली हुई रखते थे, लग-भग उतनी ह्वी अपने कोष में समय-अस- मय के लिये सुरक्षित भी रखते थे। उनका व्यवहार, वटन्बृत्त की तरह होता था। कहाजाता है कि वट-टृत्त जितना ऊपर उठा हुआ द्वोता है, भूमि से भी अपनी उतनी दी जड रखता है । पूवै समय के लोग, रेखा टी व्यापार व्यवहार किया करते ये । श्चाज के बहुत से लोग थोड़ी हैसियत होते हए भी अधिक हैसियत वाले बनने के लिए, बाह्याडम्बर बढ़ा लेते




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