रहस्वाद और छायावाद | Rahasyavad Or Chhayavad

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Rahasyavad Or Chhayavad by प्रेमनारायण टंडन - Premnarayan tandan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १६ ) मैदान में--अपनी कुछ अदा बदलकर फिर प्रायः सारा काव्य-्त्षेत्र छेक ক कर चल रही है । “कलावाद' के प्रसंग में वार-बार आनेवाले सौंदर्य” शब्द के कारण बहूत-से कवि वेचारी स्वगं की श्रष्सराश्रौं को पर लगाकर कोहकाफ की परियो या विहिश्त के फरिश्तों की तरह उडाते ह; सौँदयै-चेयन के लिए इद्र-धनुषी बादल, विकच कलिका, पराग, सौरभ, स्मित आनन, अधर, पल्नव इत्यादि बहुत-सी सुन्दर और मधुर सामग्री प्रत्येक कविता में जुटाना आवश्यक समभते हैं । स्त्री के नाना अ्रंगों के आरोप के बिना बे प्रकृति के किसी दृश्य के सौंदर्य की भावना ही नहीं कर सकते | 'कला- कला की पुकार के कारण योर में प्रगीत मुक्तकों का ही अधिक चलन देखकर यहाँ भी उसी का जमाना यह बताकर कहा जाने लगा कि अब ऐसी लम्बी कविताएँ पढ़ने की किसी को फुरसत कहाँ जिनमें कुछ इति- बृत्त भी मिला रहता हो। अब तो विशुद्ध काव्य की सामग्री जुटाकर सामने रख देनी चाहिए. जो छोटे-छोटे प्रगीत मुक्तकों मे ही संभव है। इस प्रकार काव्य में जीवन की अनेक परिस्थितियों की ओर ले जानेबाले प्रसंग या आख्यानों की उद्भावना बन्द-सी हो गयी | खेरियत यह हुई कि कलाबाद की उस रसवर्जिनी सीमा तक लोग नहीं बढ़े जहाँ यह कहा जाता है कि रसानुभूति के रूप में किसी प्रकार का भाव जगाना तो वक्ताओं का काम है; कलाकार का कोम तो केवल कल्पना-द्वारा बेल-बूटे या बारात की फुलवारी की तरह की शब्दमयी स्वना खडी करके सोंदर्य की अनुभूति उत्पन्न करना है। हृदय और वेदना का प्ल छोडां नदी गया है, इससे काव्य के प्रकृत स्वरूप के _




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