भाषातत्व और वाक्यपदीय | Bhashatatva Aur Vakyadeey

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बाबूराम सक्सेना -Baburam Saksena

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सत्यकाम - Satyakam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ लेखक का वक्तव्यः की स्पष्टता हमे उन्हीं द्वारा अन्यत्र भी कई स्थलों पर उद्घोषित मिल सकती है । उदाहरणार्थ हम यहाँ इन तीन परिभाषाओं पर संक्षेप में प्रकाश डालना उचित समझते' हैं। भतृ हरि ने श्रूति को 'अकर्तुका' माना है जबकि स्थृ॒ति को वे सनिबन्धतना' स्वीकार करते हैं। यदि यहाँ हम इतना और स्पष्ट कर दें कि वे श्रृति की व्याख्या अनादिः और “अव्यवच्छिन्ना' कह कर करते हैं, तब यह और भी स्पष्ट हो जाएगा कि अकतृ का का अर्थ क्या है। यह एक व्यवस्था है। इसे हम परम्परा कह ॒ सकते हैं, या 'लोक- জাল | सस्थृति” वे व्याकरण का ही एक दूसरा नाम रखते हैं। 'सनिबन्धना' को' अधिक स्पष्ट करते हुए उन्होंने 'शिष्टेनिबध्यमाना' कहा है। इसका अर्थ हुआ कि शिष्टो के द्वारा कुछ नियम-विधान रच दिये जाते हैं, जिन्हें व्याकरण कहा जाता है। इसे ही उन्होंने 'साधुता के ज्ञान का सोत कहा है। 'त्रिपदी-महामाष्य' में भी भतृ हरि ने व्या- करण को स्पष्टतः ्म्रतिशास्त्र' कहा है । इन सब के अतिरिक्त 'आगम' परम्परा की मान्यता को ही पुष्ट करता है। ये सब परिभाषाएं तब तक स्पष्ट नहीं हो सकतीं, जब तक हम भतरं हरि के उक्त दोनों ही ग्रंथों में बार-बार प्रयुक्त इन शब्दों को न पढ़ें । इन्हें पढ़ने के बाद हम जान पाएँगे कि भतृ हरि वास्तव में एक ही सत्य पर রন अनेक रूप में पूरी तरह प्रकाश डालते हैं। यही बात उनकी अन्य शब्दावली के विषय में है ! सापेक्ष दृष्टि भाषा सम्बन्धी अन्य विचारों में से उनकी सापेक्ष दृष्टि' को भी समझ लेना आवश्यक है । इसे भी लेखक की अपनी ही कल्पना मान कर उपेक्षित न कर दिया जाए । उनकी यह दृष्टि, दर्शन! पर आधारित होकर भी, विशुद्ध दाशंनिक हीं नहीं है, यह नितान्त व्यावहारिक दृष्टि है । यह समञ्ञना नितान्त आवद्यक है कि वे इसके हारा किसी हेटपुणं दृष्टिकोण अपनाने का निषेध करते हँ । यह्‌ एक एेसी लचकीलीः दृष्टि ই जिसमे विरोधी मतो को मान्यता देकर उन पर विचार किया जाता है। जब एके विचारक सभी विचारधाराओं पर विचार करने को तैयार हो जाए, तब वह किन्हीं दो परिस्थितियों को परस्पर विरोधी मानकर चल ही नहीं सकता । वह तो दो विरुद्ध दीखने वाली स्थितियों में भी सामञ्जस्य का सूत्र खोज ही निकालता है । उसके लिए कोई भी विरोधी स्थिति या दृष्टि एक ही सत्य को देखने का विविध उपाय होती है । व्याकरण को मागे या साधन स्वीकार करके भी भतृ हरि उस की चर्चा आवश्यक मानते ह । इसी प्रकार वे जन्म-मरण, भाव-ग्रभाव, शब्द-अर्थ, जाति-व्यवित, नाम-आख्यात, पद-वाक्य आदि को परस्पर सापेक्ष संज्ञामात्र ही मानते हैं। इतना ही नहीं, अर्थ की गौण-मुख्य, वाच्य-अवाच्य, व्यंग्यलक्ष्य आदि स्थितियों को भी उन्होंने सापेक्षमात्र ही स्वीकार किया है। उनकी दृष्टि में सत्ता एकह: नाम उसके




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