साहित्य - सर्जना | Saahity Sarjnaa

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Saahity Sarjnaa by इलाचन्द्र जोशी - Elachandra Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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६ साहित्य-सज ना इस 121९106 तरभा ( स्वर्मीय बिरह ) के भाव के सम्बन्ध में कबीर भी कद गए हैं-- सब रस तात, रबाब নন, স্থিত বসান नित्त । ओर न कोई सुन सके, के साई, के चित्त । दुष्यन्त श्रौर शकुन्तला के प्रेमजन्य मिलन श्रौर विरह की गाथा से इसी “नित्य विरहः का भाव स्फुरित होता ই | चेतन्यदेव के सखीभाव की लीला पर कोन रसिकजन पागल नहीं हुआ हस सखी-भाव के नूल में यदी प्राथमिक विरह का भाव वतमान दहै। इसी वरिरद-लीलाने श्रनेक वैष्णव कवियों के मुह से श्रभिनव सुन्दर गीत गवार ह । चंडी. दाख, विद्यापि, ज्ञानदा श्रादि कदियां की कविता मं विरह का भाव अपूर्व रूप से स्कुरित हुआ है । करीर का सखी-भाव्र मी इसीलिये इतना मनमोहक है । तुलसीदास ने यद्यपि प्रकट रूप से सखी-भाव ग्रहण नहीं किया तथापि राम के प्रति उनकी भक्ति की तीवता उसी 'भावस्थिरः विरह की ही द्ोतक है। मीरा की पदावलियाँ तो इस भाव से श्रोत- प्रोत हैं । हमारे वतमान कवियों में शुभभी महादेवी वर्मा की कविता इसी भाव को तीक्ष्ण मामिकता के कारश खऋतलब्यापी विकलता से बिहल है | संसार के रात-दिन के कंमकटों से तथा शुष्क शान की आलोचना से हम उकता जाते हैं; पर रूप-रस-गंध-गीत का संप्लवन श्रचानक श्ूत्य के किंसी श्रशात प्रांत से आकर हमें व्याकुल करके जीवन की समग्रता का अनुभव करा देता है, और हम जीवन की तुच्छुता से मुक्ति पाकर अनन्त के साथ मिलित होने के लिये उत्सुक हो उठते हैं । नमन कवि ग्येटे ने अपने जगत्‌-विख्यात ५०8 नामक ग्रथ यद्दी भाव दर्शाया है। फाउस्ट समस्त जीवन दर्शन की आलोचना करके जब यह देखता है कि उसे इस जीवन में श्रएु-मात्र मी सुख नहीं मिला, तो दशेन को ताक में रखकर वह सुखान्वेषण के लिये




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