प्रबंध - प्रदीप | Prabndha Pradiip

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Prabndha Pradiip by रामरतन भटनागर - Ramratan Bhatnagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कविता का स्वरूप ३ वाल्मीकि की रामायण से लेकर हरिओघध के प्रिय-प्रधास तक हम असंख्य कवियों और कविताओं से परिचित होते हैं । परन्तु यह दो बातें उन सभी कविताओं में मिलेगी जिन्हें हम सच्चे माने मेँ कविता कहते है । वाल्मीकि राम-सीता के वियोग का वर्णन जिन शब्दों में करते हैं, वही शब्द, वही भंगिमाएँ, वही भाव उत्कृष्ट कवियों में बार-बार दिखलाई देते है । इसका कारण यह है कि मनुष्य की “प्रकृति बराबर समान रही है और उसके मूल भावों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । जब कवि प्रतिदिन के साधारण और वैयक्तिक अनुभवों से ऊपर उठकर सामान्य मानुषी स्वभाव शओरौर तञ्जन्य सुख-दुख की बात कहता है, तव उसका कान्य देश-काल की सीमाओं कोपार कर सावेभौमिक श्रौर सावकालिक हो जाता है। बाल्मीकि सीता-राम के परिणय के गोत गाते हैं तो हरिऔध लगभग ऐसे ही प्रसंग फो सामने लाकर कृष्ण के प्रति राधा के अनुराग का चित्रण करते हैं । प्राचीनों ने कबिता के कुछ ऐसे विभाग भी किये हैं जिनका आधार उनका विषय-विस्तार और निर्वाह का ढंग है। यह भेद है. महाकाव्य, खंडकाव्य, गीतिकाव्य, नाट्यकाव्य और चम्पू । महाकाव्य, खंडकाव्य, नाट्यकाव्य और चम्पू कथात्मक हैं । गद्यकाव्य कथात्मक और वर्णनात्मक होता है। गीतिकाव्य अनुभूति-प्रधान | वैयक्तिक कविता का उदंश हमारी सम्बेदना को जगाना और हमारी सौन्द्य-बोध की प्रवृत्ति को उत्तेजना देना हे । मनुष्य को दूसरे मनुष्य से स्वाभाविक सम्बेदना होती दहै । अतः श्रेष्ठ काव्य में किसी व्यक्ति के दुख-सुख की कथा होना आवश्यक है । हर, भय, विषाद, प्रेम, इष्यो, हं ष, अहंकार, माता का पुत्र के लिए




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