समिक्षायण | Samikshyan

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Samikshyan by कन्हैयालाल सहल - Kanhaiyalal Sahalनगेन्द्र - Nagendra

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कन्हैयालाल सहल - Kanhaiyalal Sahal

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डॉ. नगेन्द्र - Dr.Nagendra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समीक्तायण ११ अनेक अवसर आ जाते हैं जब कतंव्य ओर प्रेम में न्द्र उपस्थित हो जाता है अथवा पारिवारिक स्वाथ और राष्ट्रीय स्वार्थो मे संवर्ष उठ खडा होता है। দ্সাজ का नाटक हत्या,या खूनखरात्री को महत्व नहीं देता, आन्तरिक जीवन के असामंजस्यों का दिग्वुशेन आज प्रधान हो गया है। आज्ञ के नाटक में भाषण की शैली श्रौर छत्रिमता का भी बहिष्कार हो रहा है । जीवन के अनुरूप साहित्य का स्वरूप भी बदलता रहता है । पूर्बकालीन शास्त्रीय रूढ़ियां टूटती गई तथा नाटक मे अधिकाधिक व्यापक जीवन कौ प्रधानता होती गई । पहले के नाटकों मे सामान्य जीवन का चित्रण असंभव-प्राय था। नियमों में एक प्रकार से जीवन को सीमित कर दिया गया था किन्तु जीवन की असीम व्या- पक्रता क्या कभी नियमों के घेरे मे आबद्ध हो सकती है ? फ्रांस की राज्य- क्रानित के साथ पुराने नियम तिरस्कृत सममे जाने लगे । नवीन स्वतंत्र साहित्य मे नीति का अपना अलग स्थान नदीं रहा । प्रत्यक्ततः शिक्षा देना शुद्ध साहित्य का लक्ष्य नहीं होता, उसक्रा लक्ष्य तो आनन्द प्रदान करना है; किन्तु इसका यह थे नहीं है कि नया साहित्य अनेतिक है। गेटे के विचारानुसार सहान कलाकार की रचना का प्रभाव अवश्य ही नैतिक पड़ेगा, वह चाहे जो कुछ लिखे । आधुनिक युग मे नाटक की प्रगति आदशवाद को छोड़ कर यथार्थवाद की तरफ बढ़ती चली जा रही है । आरंभिक नाटक मनोरंजन का साधन था । पाश्चात्य प्रारंभिक नाटक एक प्रकार की ऋक्ृत्रिमता लिये हुए था, कविता के निकट पहुँचा हुआ था जबकि रंगमंच अविकसित था। आज नाटक के दृश्य को हम प्रदर्शन मात्र न समझ कर वास्तविक जीवन का चित्र सममते हैं। आज का नाटक जीवन का यथाथे चित्रमात्र है, उसमे किसी प्रकार की अस्वा- भाविक्रता के लिए कोई स्थान नहीं । हां, यह्‌ अवश्य स्वीकार करना होगा कि भारतीय नाटक का अभिनयात्मक विकास इतना नहीं हो पाया जितना पश्चात्य देशों मे हुआ है क्योकि हिन्दू सभ्यता बहुत काल तक स्वतंत्र नदीं रह्‌ सकी ।




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