जैन धर्मं प्रवचन | Jain Dharmaa Pravachan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
190
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[ ६ 1].
बलवान भी हो फिर भी अनिष्टबुद्धि न. होकर सहजबृत्ति
से जो गम खाय बह उत्तमक्षमा होसकती हे। क्योकि
अनिष्टवुद्धि में क्रोध ते अंतरंग में मड़मड़ाया करता है,
परन्तु कायरतावश कुछ नदीं कर सक्ता । तव क्या षह
शांति कालेश भी अधिकारी हे? यततः जो गम अथवा
क्षमा आत्मा को सुख देवे वही क्षमा है। इसीतरह कोई
यह सोचे कि क्षमा करो, क्योंकि क्षमा से लोक में बड़ी
प्रतिष्ठा होती है, बहुत आराम मिलता है आदि | इसतरह
की क्षमा भी उत्तमक्षमा नहीं है। इससे तो राग द्वारा
आकुलता हीतो मची रहती है । उस ज्षमामें अपनी लोक
प्रतिष्ठा कीही तो बुद्धि आई, उसने आराम बढ़ानेकेलिये
ही तो क्षमा की | इसप्रकार प्रतिष्ठामें, आराम में उसको
राग हुआ | यह तो आत्मा को बरबाद करता है | इसी
तरह कोई साधु यहतो चाहता है कि वह क्षमा करे, किन्तु
यदि वह क्षमा यह समझकर कर सकता है कि इनसे स्वर
कीप्रापि होती है, तो इसग्रकार के भाव से क्षमा करना भी
उत्तमक्षमा नहीं है क्योंकि इससे तो उसने मिथ्यात्म को
ही बसाया, संसार ही बढ़ाया, अभी तो भ्रम भी दूर नहीं
किया, उत्तम क्षमा तो दूर ही है ।
उत्तमक्षमा में अनादि, अनन्त, अहेतुक ज्ञानस्रभाव
का विशुद्ध विकास है । इस उपादान का विचार करके
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