स्मरण यात्रा | Smaran Yatra

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Smaran Yatra by काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ मुरा दुनियासे अछूती रहनेवालों त्यागवीरोंगो दूसरी दुनिया भी सिलो हुओ थी । दिगृविजय और मार-विजय, «यें दो हो चीजें জুয় बक़्तके छोगोंडो आकृप्ट करती थीं। आजका रस भु जमानेके रससे अलग हैं। आज मनुप्य यश्वपि प्रकृति-विजय और शादी विजयरे पीछे पड़ा हुआ है, फिर भी साहित्यमें बहु सासकर आत्म-परिचयका भूला हैं। और जिसी दृष्टिगे आत्मकथाओं भौर रंस्मरणोी सुष- योगिताका मूल्याऊन किया जाता हैँ। अब मनुष्यकों आुदात्त-मव्यकी खोज कम करबेः आत्मीयतावद भुक्कटताकों बढानंद॥ए खयाल हो জমা हूँ! मुझ जँया व्यक्ति यदि जिसके पीछे अहिंसा-वुत्तिका अुदय देसे, ती पाठणेकी आुस पर आश्चयं नहीं करता चाहिये। ये सव विचार जव मनम सुखने हे, ओर अुवके बातावरणमें जब में स्मरण-याप्राका विचार करता ह, तव यह प्रश्न जुथ्ता ह किं ष्या ये भरस्मरण ` कालके प्रवाहे टिक सकेंगे? महात्माओंके सत्यके प्रयोग अजर-अमर हो सकते हैँ। पत्यर पर मुरी ही अश्ोककी विजय और अनुतापकी स्वीकृतियाँ हजारों वर्ण बाद भी जैसीकी तैसी रहू सकती हैँ। सेन्ट ऑगस्टाअनके “कन्फेशन्स साधक वृत्तिको नयी नयी सूचनार्ओ दे सकते हें; रूसोका आत्म- परिचय मनुष्य-हृदयफो हिला सकता हूँ; टॉब्स्टॉयके वचपनवेः चित्र साहित्यकछाको नयी प्रेरणा दे सकते है; और समाजमें सब तरहसे बदनाम हुओ ऑस्कर वाजिल्डका “डी प्रीफण्डिस' भी कल्पना:प्राण मानवीय हृदयके आर्क्रतके तौर पर मनुष्य दिलचस्पीके ` स्नाय पढे सकता हैं। लेकिन शिस स्मरणन्यात्राका प्रवाह स्री मार्कण्डी* के सौम्य प्रवाहके समान है। जिसमें न तो कुछ भव्य है, ल भुदात्त ओर न ललित ही। जिसमें न तो गहरी खाभियाँ हैं और न शुत्तुय शिसर ही | में तो सामान्य कोटिके मनुष्यका प्रतिनिधि हूँ, वैसा ही रहना चाहता हूँ; ओर जिसी दृष्टिकौ सामने रखकर मेने अपने अनुभवोंका यहाँ स्मरण किया हैं। सामान्य मनुष्यको मुख्यतः अदुभुत और असाधारण देखने-जाननेकी '* ओक नदी जो मेरे माँव बेलगुदीके पाससे बहती है!




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