रामकृष्ण विवेकानंद द्विवेदीयुगीन हिंदी साहित्य | Ramkrishna Vivekanand Dwidi Ugin Sahitya

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Ramkrishna Vivekanand   Dwidi Ugin Sahitya by पं. गिरिजा प्रसाद द्विवेदी - Pt. Girija Prasad Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ पीठ दक्षिणेश्वर लौट आये । यहाँपहुँच कर उन्होंने पूजा के दायित्व को पुनः सम्भाल लिया । नाना प्रकार की साधनाएँ भी साथ ही साथ चलती रही । थोड़े ही दिनों में उनका वही पुराना उन्माद तीव्र रूप में उमड़ पड़ा । फिर वही गात्रदाह फिर वही अस्थिरता,छाती सदा लाल रहती,अपलक दृष्टि से निरन्तर माँ - माँ का करुण कन्दन करते हुए रोते रहते थे । काली मन्दिर की प्रतिष्ठात्री रानी रासमणि उनके दामाद मथुर बाबू और मन्दिर के कर्मचारियों की रामकृष्ण की यह दशा देख कर विस्मय की सीमा न रही । विवाह के बाद तो मन शान्त हो जाने की बात थी पर यहाँ तो उल्टा ही हो गया । रामकृष्ण के प्रति मथुर बाबू के अतिशय श्रद्धा व भक्ति रखने के कारण कलकत्ते के सर्वोत्तम वैद गंगाप्रसाद सेन की चिकित्सा का प्रबन्ध किया गया । नाना प्रकार की चिकित्सा चली परन्तु कोई लाभ नही हुआ । रोग के लक्षणों को समझने के बाद वैद्य ने देखा कि यह तो दिव्योन्माद की अवस्था प्रतीत होती है । यह योगज विकार है जो योग साधना के फलस्वरूप उत्पन होता है । यह चिकित्सा से ठीक नही होगा और हुआ भी वैसा ही । वीमारी दूर होने की बात तो दूर रही उसमे क्रमशः वृद्धि ही होती गयी । वेदों की वाणी है मातृ देवों भव' 'पितृ देवों भव” रामकृष्ण की मातृभक्ति असाधारण थी । वे अपनी गर्भधारिणी माँ चन्द्रमणि देवी की देवी बोध से सेवा किया करते थे । दक्षिणेश्वर मे रहते समय प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर वे सर्वप्रथम नौबत खाने में जाकर अपनी माता को प्रणाम करते, तत्पश्चात कुशल प्रश्न पूछ कर थोड़ी देर तक उनके पास बैठते, फिर मन्दिर में भवतारिणी काली का दर्शन करने जाते । मझले भाई रामेश्वर के देहावसान के बाद वे अपनी शोक सन्तप्त माँ को कामारपुकुर से दक्षिणेश्वर ले आये थे ओर तब से आजीवन उन्हं अपने पास ही रखा था। माँ के मन को आघात न पहुँचे इस लिए उन्होंने छिपकर संन्यास ग्रहण किया था । वृन्दावन में साधिका गंगा माता के विशेष अनुरोध पर वे वहाँ यह सोच कर अधिक दिन तक नही रह सके कि दक्षिणेश्वर में उनकी माँ को उनकी अनुपस्थिति में कष्ट होगा । माया मोह से परे विज्ञानी की अवस्था में प्रतिष्ठित होते हए भी वे मँ के दिवंगत होने पर अधीर होकर रोये थे । वे शास्त्र विधि के अनुसार संन्यास लेकर संन्यासी हो गये थे ओर संन्यासी को माता - पिता की अन्त्येष्टि क्रिया मे अधिकार नही होता है । अतः उन्होने गंगा जी मेँ खड़े होकर अश्रुनीर से माता का तर्पण करते हए




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