मनुस्मृति अर्थात् मानव धर्मशास्त्र | Manusmriti Arthat Manav Dharmshastra

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Manusmriti Arthat Manav Dharmshastra by पं. गिरिजा प्रसाद द्विवेदी - Pt. Girija Prasad Dvivedi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भूमिका । १३ जे सामवन्धेन वध्यते, कल्पेस' कल्प्यत्ते कर्मकाएडानुपूव्या संपादयते, तथंव ज्योतिषेण थ्योत्यते मरकृतिविकृत्युभयाजुभयात्मनां यज्ञाना- मनुह्ानकालादेशेन प्रकाश्यते | * बच के चार उपाड् । वेद, बेदाह के समान वेदों के उपाज की नियत गणना नहीं हूं उसका क्रम मिलन भिन्न प्राप्त होता है । याज्ञवल्क्योक्त क्रम पहले लिखा जा चुका है और यह दूसरा क्रम है-- * झथ चत्वार्युपाज्ञानि बेदानां, संप्रचक्षते। धघर्मशारूं पुराण च मीमांसान्यायविस्तरः ॥ * ऐसी दशा में नाम क्रम की एकता नहीं दो सकती और _ यहांपर मीमांसा से पूर्व तथा उत्तरमीमांसा का ग्रहण किया . जाता है न्याय से वेशेषिक का ग्रहण हो सकेगा; परंतु सांख्य झौर योग का भी ग्रहण करना उचित हे क्योंकि वह भी न्पाय आदि के समान आस्तिक-दशेन हे तो पुराण से सांख्य- योग का ग्रहण हो सकेगा । अथवा वेशेषिक-न्याय, सांख्य- योग पवेमीमांसा-उत्तरमीमांसा, यह दार्शनिक विभाग स्वतन्त्र ' है और यही पटशाख के नाम से प्रसिद्ध हे । षरशाख्रा का समाहक शलाक । * न्यायदेशेषिके पूर्व सांख्ययोगों ततः परमू । ' * मीमांसादितियं पश्चादित्याहुदशंनानि पट ॥ ' श स्थायविस्तर । ममाणों से अथपरीक्षा के लिये शाख | वह दो पकार 'का । एक न्याय दूसरा वेशेषिक ! प्रमांसादि पोडश-पदाथेवादी पश्चाध्यायी गौतम मुनिकृत न्यायशाख्र !




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