सांस्कृतिक छवि के अंजुरी भर गीत लोरी प्रभाती | Sanskrati Chhvi Ke Anjuri Bhar Geet Lori Prabhati
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
262
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)भ्रयवा
फादं चलत पष्ट द्रं धरती ।
जो मनम झमिलास करत ही, सो देखति नेंद घरनी।
रुनुक भुनुक पपनूधुर वाज घुनि श्रति ही मनहरनी ।
बठि जात पुनि छठत तुरत ही सो छवि जाय न बरनी।
भावचित्रो छी एक रील तथार हो जातो है । वह घुमती है भौर
कवि गाता चलता है। वाल लीला की लावण्यमबी भावी शरद की चांदनी
की भाति यत्र तत्र सवश्त बिखरी हुई दिसाई देती है। घर भागन बाहर
भीतर कुमी तो उसके वरदान से विरहिंत नही है। ऐसा कौन पाहन
हृदय होगा जो सूर को कविता कै इस स्वाभाविक सौंदय से प्राह्न|दित महीं
द्वो उठता ।
छ्षिगु कौतुक भोर मातृ हृदय स्तितेदी भनुपम चित्र भध कनि
ने हिंदी साहित्य को प्रदान किए हैं, उनसे उनके काव्य लोक म बात्सल्य
मू्तिमान ग्रौर सजीव हो उठा है । विदग्ध कवि छत सूक्ष्म शिराप्ो को बडी
मामिकता से स्परिदत करना जानता है जिससे प्रसूत सगीत भावों की
मदाकिती में भ्गणित लहरें उठाने मे समथ होता है। ऐसे चित्रों की
सूर कै बाल लीला भ्रवरण में कमी नही है, यधा--
मया मैं तो घाद खिलोना लहाँ 1
जहां लोटि घरनि पर प्य ही, तेरी गोद थ ऐहों।
छुरभी को पय থান ল নহিহী, बेती सिर न ग्रुदैह्दों ।
छ्व हों पूत नद बाबा को, तेरो घुत न बहैहों।
और देखिए --
মহা कवबहि व्टगी चोरी)
किती बार मोहि दष पियत मह, यह श्रजहू है छोटी ।
तू जो कहति बल को बनी ज्यों छू है लाबी मोटी ।
काचो दूध पियावत्ति पचि पवि, देति न माखन रोटी ।
मूतिमान बचपन का यह बित्र कसा स्पष्ट झौर सजीव है इसका
प्रमुमव भाग्यशाली उन घरो म प्राय नित्य प्राप्त होता दै जहा दो छोटे बालक
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