सिंह सेनापति | Singh Senapati
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11.45 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तच्तशिला में ः श्दे
“स्तो तात ! तुम चीर-पुत्र हो । अच्छा, मेरे भाई महाली ने तुम्हें क््या-
क्या शिक्षा दी है ?”
*पाचार्य ! मैंने मुष्टि-युद्ध सीखा है, मल्न-युद्ध, खड्-युद्ध जानता हूँ ।
घनुप में शब्दू-वेघ, चल-वेध जानता हूँ । श्रश्व, रथ, गज, पदाति के आ्राक्र-
मण-प्रत्याक्मण के कौशलों तथा व्यूह और ढुग की रचना का ज्ञान मेरा
प्रारंभिक है ।””
“तो तात ] ठुम १८ साल की आयु के अनुरूप जितना ज्ञान होना चाहिये,
इससे ज्यादा सीख चुके हो । किन्दु वत्स ! विद्या का अन्त नहीं है, आर न
अन्त होगा, वह दिन पर दिन बढ़ती ही जायगी । हमारे पास पूर्व के ही नहीं
पश्चिम के भी विद्यार्थी ्राते हैं । यहाँ पश्चिम गंघार, कम्बोज, पर्श [ पारस ]
पवेरू [ वादुलं ] और यवन तक के शिक्षार्थी हैं । हमारे ये दूर के छात्र सिंफ़॑
छात्र ही नहीं हैं; बल्कि इनसे हम कई नये युद्ध-कौशल सीखते हैं । झ्रमी
पाशंव शास [ शाह ] को यवन चीरों ने जो करारी शिकस्त दी है, उसमें उन्होंने
एक विल्कुल नये दाँव-पेँंच इस्तेमाल किये हैं । किन्तु, यह सामुद्रिक युद्ध था,
इसलिए हमारे और तुम्हारे गण के लिये उसका महत्त्व सिफ़े विद्या-विलास-
मात्र है । किन्तु, वत्स ! इससे यह तो समभ सकते हो कि युद्ध-बिद्या दिन पर
दिन चढ़ रही है । दम तक्षशिलावासियों को इस बढ़ते हुए छोटे से छोटे ज्ञान
की भी भारी पर्वाह रहती है । यदि हम बासी ज्ञान को ही सिखलाते रहें,
तो चक्नशिला कितने दिनों तक श्रपने स्थान को क्रायम रख सकेगी ? और
रसके लिये तक्तशिला ने उपयुक्त स्थान मी पाया है । पूर्व में जितना दूर
वेराली ई, उतना हो पच्छिम जाने पर हम पाशंव शास की राजघानी--पशु-
उरस-पार कर जायेंगे । यवन उससे बहुत दूर हैं, किन्ठ यवन हमारे मित्र
६ 1--शन्नु का शन्ु मित्र होता है । यवनों ने शास को घुरी हार दी, जिस वच्छ
पद समाचार हमारे इस पूर्व यंधार में पहुँचा, उस दिन सब जगह खुशियाँ
मनाई राई । हमें दफ़सोस है, हमारा पश्चिम गंघधार--महार्सिघु के उस पार
का मदेश--दब भी पार्शवों के हाथ में है । यद्दी नहीं, यदि यवनों से दार न
साई होती, तो वदद हमारी तन्शिला की शोर घढ़नेवाले थे ।”
“श्राचार्य ! जो भय तक्षशिला को पश्चिम से है,.वद्दी भय देशालो
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