श्वेताश्वतरोपनिषद | Shwetashwatropnishad
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
216
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)शाइमिक दचारधाराएँ &
६ व्वेतादरतरोषनिषद् तया धम्य হাহীলিক্ষ दिषारपारापु--इस उपनिषद्
के विषय मे विद्वानों गो एवं घारणा है वि यह उपनिषद् उस बाल की বন্য हे
जव सास्य, मोग तथा वेदान्त स्वतस्त्र रूप में दाशंनिक विचारधारा के रूप में
स्वीशृत नहीं हो पाए थे। समवत यह इसलिए कहा »गया है कि इस उपनिषद्
में इन तीनो दार्शनिक विचारघारामो के भतुर् उपलब्ध होते हैं। इन तोनो
मे सास्य दर्शेन वै तत्त्व सर्वाधिक रुप में उपलब्ध होते हैं ॥ जहाँ तक
योग का प्रश्न है उसकी स्थिति इतनी महत्त्वपूर्ण नहीं है भौर येदान्त को भी वही
स्थिति है यद्यपि उसमे अदद्धत वेदान्त तथा द्वेत--दोनो वे! तत्त्व दिज़लाई पड़ते
हैं। सबसे पहले हम साख्य पर विचार बरते हैं । इस विषय पर गमीर रूप से
विचार करने से पहले यहाँ यह ज्ञातव्य रै त्रि इस उपनिषद् मे सास्य दर्शन मे
प्रयुकत होने वाले पारिभाषिन शब्दों का प्रयोग माफी क्या गया है भौर सबसे
अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमे सास्य सूत्रो वे प्रणेता कॉपप्त) ऋषि वा
सकेत भी मिलता है। टीकाकारो ने कापिल शब्द के मिम्न-भिन्न प्रर्थ किए हैं।
पहले भ्रध्याय बे. चौथे तथा पाँचवे मन्त्र मे चक्र एवं नदी वे माध्यम से साख्य
दर्शन के प्रधिकाश तत्त्वों का प्रतिपादन किया गया है। यह चक्र वास्तव में ब्रह्म
चत्र ही है जिसको परमात्मा चलाता है प्रर्थात् इस ससार चक्र का गअधिष्ठाता
या स्वामी ब्रह्म है। इस चक्र में प्रकृति झखिल ग्रह्माण्ड रूपी चक्र का भ्राधार
है । प्रदृति तीन वृत्तो स युक्त है । ये तीन वृत्त साख्य के सत्त्व, रजस् तथा तमस् ही
है। यह चक्र सोलह भ्रन्त वाला है । ये सोलह भ्रन्त साख्य के सोलह विकार--ग्यारह्
इन्दि तथा पौव महाभूत ही हैं । चक्र म पचास भरे हैं। ये भरे साख्य बे: पचास
प्रत्ययवर्ग हैं। चक्र मे दीस प्रत्यरे हैं। ये दस बाह्य इन्द्रियाँ तथा दस इनके विपय
हैं । स तरह पचास श्रे तथा बीस प्रव्यरो वलते ससार-चक्र बो सास्य विचार
धारा के अमुसार समभा जा सकता है। पाँचवें मन्त्र में नदी का वर्णन क्या
गया है । इस पूरे प्रसण को भो साप्य विचारधारा के अनुसार समझा णा
सक्ता है. 1२ पहले अध्याय के नौवें मन्त्र मे बतलाया गया है कि ईदबर तथा
जीवात्मा प्रमन्ष ज्ञतया अज्ञ हैं और अजा प्रकृति भाकता (जीवात्मा) को भोग्यार्थ
(प्रकृति) की ओर ले जाती है। प्रात्मा भ्रनन्तहै। पहले ही प्रध्याय मे सारय
के क्षर तथा अक्षर का भी निरूपण किया गया है | इसी प्रकार इस प्रध्याय
में आगे चलकर साख्य वे' प्रधान का भी वर्णन किया गया है। तौसरे प्रध्याय के
१. एवेताइवतरोपनिपद् ५ २१॥
प्रथम अध्याय के चौथे तथा पाँचवें मन्त्र में सास्य का प्रभाव स्पष्ट ही परि-
लक्षित होता है | इसके विस्तृत विवेचन के लिए देखिए इ जान्सटन, सम
सारय एप्ड योग क्स्सेप्शन्स प्लॉफू दि इवेताश्वतरोपनिषदु, जर्नल ऑफ
रॉयल एशियाटिक धोमाइटी, १६३०, पृ ८५५-८७८ | রঃ
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