सुक्षुतसंहित | Sushruta Samhita
श्रेणी : धार्मिक / Religious
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
62.06 MB
कुल पष्ठ :
663
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. प्राणजीवन माणेेकचन्द मेहता - Dr. Pranjivan Manek Chand Mehta
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)तथा श्रीचक्रपाणिदत्त विरचित सूत्रस्थान मात्र की भानुमती व्याख्या एवं श्रौगयदासाचार्य-चिरचित निदानस्थानमात्र की न्याय चन्ड्रिकास्यपश्चिका व्याख्यायें उपलब्ध हैं । नवीन संस्कृत-टीकाओं में समग्र सुधुत पर श्रीहाराणचन्द्र द्वारा विरिचित सुश्चुतार्थ- सन्दीपन भाष्य समुपलब्ध हैं । इनके सिवा भद्धर हृरिचन्द जेव्वट गयदास शिवदाससेन और देमाद्िं की खण्डित ब्याद्याएँ भी यत्र तत्र पुस्तकालयों में सुरक्षित हैं किन्तु अन्य व्याख्याएँ उपलब्ध नहीं होती हैं । संहिताकाल श्और व्याख्या- काल के पोछ़े विक्रम की इस वोस्वीं शताब्दी से संस्कृत भापा के पठन-पाठन का दिन प्रतिदिन हास होने से झार्षग्रस्यों के .मूल अर्थ को तथा प्राचीन व्याख्याकारों ने संस्कृत में स्पष्ट किये हुए भावों को भी ठीक-ठीक सममानेवाले वैदयों को संख्या वैद्समाज में दिन प्रतिदिन घट रही हैं अतएव वर्तमान समय में श्वल्पसंस्कृतज्ञ तथा संस्कतान- मिश्ञ वेदों एवं विद्यार्थियों के लिये करने की प्रदत्ति झारम्भ हुई । यह श्रत्यन्त इ ख की वात हैं कि सुथ्रुत के दविन्दी चैंगला मराठी गुजराती जितनी भी भाषाओं में अनुवाद हुए हैं कुछ को छोड़ कर धिकतर ऐसे हो जिससे संस्कृतरीकाओं का यूढार्थ समकना तो दूर रद ्पितु मूलप्रन्य का झाशय भी ठीक-ठीक समकाना कठिन है । इसका कारण उन टोकाकारों का गुरुपुख से झायुर्वेद-अध्ययन का अभाव संस्कृतपाण्डित्य का अभाव या संस्कृतज्ञ हों तो श्ाधनिक चिकित्साविज्ञान में शून्यता श्ञादि हो सकते हैं 1 हिन्दीटीका प्रकार-- १ प्रथम अकार में श्रन्थ के मूल पद्य या गय का उल्लेख न कर दे वल उसका श्रजुवाद सरलम्गषा में कर दिया जाता है जेसे तथा भागवत का शुकसागर । यदद पद्धति व्यक्तियों के लिये कोई लाभदायक नहीं हैं । २ दूसरे प्रकार में प्रथम उस अन्थ का मूलपाठ देकर उसके नीचे उसका सरल झर्थ दिया जाता है । यदद प्रकार सावारण जनता तथा दोनें के लिये उपयोगी है क्योंकि पाठक के सम्मुख मूलपाठ रहने से मूलाय की ययार्यता स्वयं जान सकता है 1 ३ तृतीय श्रकार में मूल और उसके के सिवाय मूल की टीको पटीकाएँ तथा उनके भी सरल अजुवाद दिये हुये रहते हैं । जले माववनिदान तथा उसकी मधुकोंप टोका का अनुवाद है । साघारण जनता के लिये यद्द अकार विशेषोपयोगी न दोकर शाक्नचिन्तक लोगों के लिये विशेष लाभश्रद होते हैं क्योंकि टीकोपटीकार्यों में मूल के सिवा भी श्रकरणाजुसार पर पर्याप्त डाला हुआ रदता हैं ४ 9 चतुर्य प्रकार में मूलपाठ तथा उसके सरल के श्नन्तर टीकाकार स्वयं झ्पना वक्तत्य के में लिखता है जिसमें कठिन तथा गूढ शब्दों और भावों पर पर्या्त काश डाला जाता हैं मतमतान्तरों का वर्णन रहता है समन्वय योग्य स्थलों का समन्वय किया जाता हैं । जद्दा यवार्थ में विरोध रदता है उसे निप्पल अदर्शित किया जाता है। सून्नरुप में कढ़े हुये आआचीन विपयो को आधुनिक विज्ञान के द्वारा पूर्ण किया जाता है । उभयमत पुष्टि के लिये श्रुति स्थति पुराण उपचिपन. इतिहास श्ररति प्राच्य शात्र तथा उनकी टीकाएँ एवं वर्तमान वैज्ञानिकों के श्रन्थ लेख का यथोचित आधार लेकर विषय को स्वाद पूर्ण सममाने की चेछा की जाती है। यह टीका प्रकार स्व अकारों में श्रेष्ठ हे क्योंकि पाठक के पास प्राच्य-ब्रतीत्य उसय विज्ञान की सामओ्री होने से वह उस विषय को पूर्ण करने के साथ ही अपना मत भी बता सकता है। इस प्रकार की टीका मेरे युद्वर्य श्री डाक्टर घागेकरजी ने सुशुत के सून्ननिदान एव शारीर स्थानों पर लिखी है तथा मैंने भी इसी प्रकार का वलम्बन लेकर श्रीमान बाबू श्रीजयकृष्णदासजी युप्त के छात्रह से समग्र सुधुत पर ऐसी विशद् टीका लिखने का प्रयास ्रारम्भ किया हैं जिससे गुरुवर्य के द्वारा अन्य विशिष्ट का्य-संलमतावश सूत्र निदान और शारीर के पथ्थात् के _ बचे हुए भागों का ऐसी टीका रुप में विशद ण्विचन हो जाय जिसने के विद्वानों और छात्रों का इस भाषाभाष्यरूपी टीका से विशेष मनोरज्ञन व शास्रचिन्तन हो सके । यद्यपि यह कार्य झत्यन्त_कठिन हैं तथा मेरा अयास उसी प्रकार का दै जैसा कि महीकवि कालिदास ने कहा है छ सूर्यप्रमवो वंशः कचाल्पविषया मति | वितीघुंडुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरमू । तथापि द्वादश वर्ष तक काशी तया काशी दिन्दूविश्वविययालय में व्याकरण न्याय साख्य साहित्य ्ायुर्वेद श्र ढाक्टरी का अनेक दिस्गज विद्वानों से ्ष्ययन करने के प्यात_ सन १५४० से १९५३ तक इन्दौर रामगढ़ शुरुझुल कांगडी जयपुर आदि स्थानों के श्रायु्वेदिक मद्दाविद्यालयां में प्रिसिपल के रुप में रह कर संकड़ां छात्रों को झष्टाह कि. कै उसके मत शायुबेद का दुलनात्मक व्ययन कराने से जो ज्ञानाुभव हुआ द उसके आवार ली ५/ प्र
User Reviews
No Reviews | Add Yours...