रिट्ठ्णेमिचरिउ | Ritthanemichariu
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
228
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१३)
कृष्णकाव्य की रचना की । इसके पहले और बाद मे भी, एक भी कवि ऐसा नही हुआ कि जिसने
दोनो पर समान रूप से काव्य-रचनाएँ लिखी हो । इस प्रकार इनमे सम्पूर्ण रामकाव्य और
क्ृष्णकाव्यघारा की निदिचत और अविच्छिन्न परम्परा मिलती है।
भारतीय काव्य-रचना के लगभग दो हजार वर्ष के इतिहास मे शाम-कथा और कृष्ण-कथा
को आधार मानकर काव्य रचनेवाले कुल सात कवि हुए--वाल्मीकि, व्यास, विमलसूरि,
स्वयश्रू, पुष्पदन्त, सूर ओर तुलसी । इनमे भौ राम-कथा और क्ृष्ण-कथा पर एक साथ काव्य-
रचना करनेवाले कवि यदि कोई हैं तो वे हैं--सवय भू और पष्पदन्त। इन दोनो मे भी स्वयभर
ने 'पउमचरिउ' के समानान्तर “रिट्ठणेमिचरिउ' को महत्त्व दिया | अत समूची राम-काव्य
और क्ृष्ण-काव्य परम्परा में वे पहले कवि हैं जिन्होने दोनो के चरितो पर समानरूप से
अधिकारपूर्वक काव्य-रचना की । उनके रामकाव्य 'पउमचरिउ' का सम्पादन-प्रकाशन लगभग
२५ वर्ष पहले हो चुका है, परन्तु 'रिट्ठणेमिचरिउ' अभी तक अग्रकाशित है। १६७४ मे मैंने
सोचा था कि क्यो न 'रिट्ठणेमिचरिउ' के सम्पादन को हाथ मे लिया जाए। कारण यह कि
इसके अप्रकादन से म केवल क्ृष्णकाव्य-परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण कडी दोष रह जाती है,
अपितु स्वयभू जैसे कवि के सम्पूर्ण काव्यसाहित्य का भी प्रक्राशन अपूर्ण रह जाता है। जहाँ ये
कवि सस्कृत राम-क्ृष्ण काव्य-परम्परा के अन्तिम कवि हैं, वहीं आधृनिक भारतीय आर्यमभाषाओ
के आदि कवि हैं। इनकी रचनाओ के वस्तुनिष्ठ अध्ययत्त के बिना परवर्ती रामकाव्यो और क्रृष्ण
काव्यो का सम्पूर्ण ओर वैज्ञानिक अध्ययन सम्भव नही है। यह लिखते हुए मैं इन काव्यो की
सीमाओ से भलीभाँति परिचित हूँ । वैज्ञानिक अध्ययन से मे रा अभिप्राय यह कदापि नही है कि
सारा परवर्ती राम-कृष्ण-काव्य इन कवियो की रचनाओ के आधार पर लिखा गया । परन्तु
भाषा और कविता पर किसी एक सम्प्रदाय, प्रदेश या भाषा का एकाधिकार नही होता। वे
जनमात्र की सपत्ति होती हैं । वे माध्यम हैं जिनके द्वारा विभिन्न जातियाँ और समूह रूढियो
से बेंघते हैं और मुक्त होते है। भाषा जाति के व्यवहार को गतिशील ओर मुक्त बनाती है,
जवकि काव्य उसके मानस को गतिशील और तनावो से मुक्त करता है। रूढियो से मुक्ति की
आकाक्षा ही मानवता का विस्तार करती है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य शरीर की जड
आवश्यकताओं (आहार, निद्रा, भय मौर मधून) वाली तात्कालिक भौर भल्पकालिक पूति
वाली पशु-सस्कृति का ही प्रतिनिधि होता, जिसका न तो अतीत होता है और न ही भविष्य |
चह वर्तेमान मे ही जीवित रहता। जब नयी भापा और कविता अस्तित्व मे आती है, तो उनमे
पुरानी रूढियो से मुक्त होने की तीव्रतर आकाक्षा होती है । वे अपनी जन्मदात्री परिस्थितियो
तक सौमित नही रहती, उनका दूरगामी प्रमाव होता है । जब वाल्मीकि ने वैदिक ऋचाओ की
जगह, पा निषाद' अनुष्टुप छन्द मे कौच-वघ को देखने से उत्पन्न शोक को व्यक्त किया तो वह्
नयी युग-सस्कृत्ि का स्पन्दन वन गया । वाल्मीकि उसके सवाहक बने । इसीलिए लोकभाषा
(सस्कृत) के कवि होने पर भी उन्हे “आएं कवि” माना गया। अभी तक ऋषियों की सज्ञा उन
कवियो को प्राप्त थी जो मन्वद्रष्टा (ऋषयो मन्तर-ब्रष्टार ) ये, जवकि वाल्मीकि मन्तरदरष्टा
नही, उन्दस्नष्टा थे । जिस सत्य की अभिव्यक्ति उन्होने काव्य मे की, वह आत्मसृष्ठ या आत्म-
दृष्ट न होकर अनुमूतिदृष्ट थी । वह बिराद् और शाइवत सत्य नही था, अपितु अल्प और
क्षणिक अस्तित्व के अपघात-दर्शंन से उपजा अनुभवसाक्ष्य सत्य था ।
यदि अनुश्ुति को सह्दी माना जाए, तो वाल्मीकि अपने प्रारम्भिक जीवन मे तमसा तीरवासी
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