तत्त्व भावना | Tatvabhavna

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Tatvabhavna by श्रीमद मितगति आचार्य - Srimad Mitagati Aacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तत्वभावना । [ ६ भावार्थ ~ यहापर भी प्रतिकमणका भाव भलकाया गया है 1 जहांतक कषायोका श्रमाव न हो प्र्थात्‌ वीतरागी न होजवे वहातक कषार्योका जोर कमी कम व कभी अधिक होता रहता है। जिससमय परिणाममे कषाय मंद होती है तब 'ही भावोंमें शांति, विवेक, बुद्धिमानी कलकती है । तब वह मानव भूति हो या श्रावक अपने घारण किये हुए चारित्रके नियमोमें बहत बडा सावधान रहता है भ्ौर मन, वचन, कायसे कोई दोष 'नहीं लगने देता है। परन्तु जिससमय किसी निमित्तवश “परिणाममें लोभका कुछ जोर होजावे या क्रोधका वेग उठ आवे या भानभावसे भ्रन्धेश! होजावे या आलस्य होजावे या द षवुद्धि पैदा होजावे या काममावसे वावला होजावे उस समय मनमे दाति, भरजञान श्रौर मूढता कम ब भ्रधिक षर कर लेती है । तब उसी मुनि व श्रावकसे चारित्रके पालनमे बहुतसे दोष लग जाते है । कदाचित्‌ काय व वचन सम्बंधी न हो व बहत ही अल्प हो परंतु मानसिक दोष तो हो ही जाते हैं। इसीलिये अतिक्रमण किया जाता है। जिसमे यह भावना भाई जाती है कि वे दोष दर हो व उनसे लगा हुआ पाप क्षय होजावे या कम “होजावे। श्री जिनेन्द्र भगवानके गुण परम पवित्र हैं। इसलिये “उनके मिमल ग्रुणोंके स्मरणसे परिणाम निर्मल होजाते हैं भोर पवित्र भावोमे यह शक्ति है कि पापोंका नाश कर डालें। जंसे स्थूल शरीरे बहुत सावधानीसे हवा, पानी व मोजन लेते हुए व समयमे भोजनपान, नीहार, विहार व निद्रा लेते हुए कमी भी किसी. न किसी बातमे भूल होजाती है । अनिष्ट भोजन “जबानके स्वादवक्ष खालिया जाता.राज्रिको देरतक जागकर निद्रा नकम लीजाती, व कामकाजमे उल जानेसे बेसमय भोजन किया ` जाता, व अधिक स्त्री-पसंग करिया जाता इत्यादि श्रपनी ही




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