रत्नकरण्ड श्रावकाचार | Ratnakatand Shravakachar
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
296
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)८१३)
त्तधाराक्तसी जवर 'उथ्र तथा निर्दय रूपः धारण कर लेती है'तो उस समय
कितना कष्ट और केसी मष्टावेदना इस जीवको होती. है ।' अच्छे २
घोरंव:रोंका थैये छूट जाता है, श्रद्धान अ्रष्ट दो जाता हैं भौर ज्ञान 'गुण
डर्गमगा जाता है, परन्तु स्वामा समन्तभद्र उनमें से नहीं थे,वे महामना
थे, महात्मा थे; आत्म-देहान्तर ज्ञानी थे, संपत्ति-विपत्ति में समचित्त थे
निर्मल सम्यकदरशन के घारक'थे और उनका ज्ञान अदुष्ख भावित नहीं था
जो दुःखों के थाने पर क्षाण हो जावे ।' स्वामीजी तो घोरर तपश्चरणों
हारों कष्ट सहन करने के अभ्यासी थे, इसलिग्रे'इूस महांवेदनाके अवसर
पर थे ज़रा भी खेद खिन्न, विचलित तथा' पेय॑च्युंत नंहीं हुवे। रोग
उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया, भौर ऐसा असछा ' होगया कि 'स्वामीजी'की
देनिक चर्यां मे भी बाधा पड़ने लगी इसलिये स्वामी ने 'विचारा “कि
झब मुझे “सल्लेखना'' श्रत मोढ़ लेना' व्वाहिये और मृत्यु की अतीक्षा
में बैठकर शान्ति के साथ इस विनश्वर देह का धर्माथ त्याग कर देना
चाहिये” झतएव इसी विचार को लेकर अपने पूज्पवर गरुदेव की सेवा
में पहुँचे, और अपने रोग का कुल वृत्तान्त कह 'सुनाय्रा । भर नश्नता
पर्वक संल्लेखना धारण करने की आज्ञा के 'लिये 'प्रा्थना की--इस पर
गरुरेव कुछ देर तो मौन रहे परन्तु उन्होंने योग बल से यह जांन लिया
कि समनन््तभद्र अल्पाय नहीं है, उसके द्वारा धर्म तथा शासन के उद्धार
का महान कायंष्टोनेकोषहै। इस दि से ` वंह संक्षेखनाःका पोत्र नहीं
पला सोच गंरुवर ने समन्तभद्र को `सष्धेखना धारण ` करने ` की घान्ञा
नहीं दी और भादेश“कियां कि तुम जहाँ पर भर 'जिसे 'घेष में रहकर
रोगोपशमन 'ঈ योग्य तप्ति पर्यन्त भोजन प्राप्त 'फर 'सफो वहीं पर' चले
जाओ और उस वेप को धारण करलो,' रोग फे शान्त ` होःजाने पर
फिर से भ्रायंश्चित पूत्रंक सुनि दीक्षाधारण कर लेना और 'अपने कार्य
को: संभाल लेना; सुम्दारी श्रद्धा और : गुणज्ञता पर, झुझे'पूर्ण विश्वास
है।” .
` ` समन्तमद्रनी ने शुरु आक्षा को शिरोधोंय किया । ` वदे ` उहापोह
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