जैन दर्शन और संस्कृति | Jain Darshan Aur Sanskriti

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Jain Darshan Aur Sanskriti  by आचार्य महाप्रज्ञ - Acharya Mahapragya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हेन है सस्यं शिव सुन्दर की त्रिवेणी ३ 2 व्यावहारिक (74827331) या नैतिक (70181) ३ आध्यात्मिक {51711४31}, धार्मिक (16181005) या पारमार्थिकं (8०७९९ ५९०18]) इन तीन दुष्टियों से 'सत्य', शिव” और सुन्दर का मूल्याकन किया जा सक्ता है) वस्तुमात्र ज्ञेय है ओर अस्तित्व की वुष्टिसि जेयमात्र सत्यदहै। पार मार्थिक दृष्टि से आत्मा की अनुभूति ही सत्य है । शिव का अर्थ है---कल्याण । पारमाथिक दृष्टि से आत्म-विकास शिव है। व्यावहारिक दृष्टि से भौतिक (पौद्ूगलिक) साज-सज्जा सौन्दयं है । सौन्दययं की कल्पना दृश्य वस्तु में होती है | दृश्य वस्तु रूप, गन्ध, रस और स्पर्श--इन चार गुणो से युक्त होतो है । ये वर्ण आदि चार गुण किसी वस्तु में मनोज (मनपसद) रूप में होते हैं, तो किसी मे अमनोज्ञ | इनके आधार पर वस्तु सुन्दर या असुन्दर मानी जाती है । पारमार्थिक दृष्टि से आत्मा ही सुन्दर है । पारमार्थिक दृष्टि से सत्य, शिव और सुन्दर आत्मा के अतिरिक्त कुछ भी नही है | व्यावहारिक दृष्टि से एक व्यक्ति सुन्दर नही होता, कितु आत्म विकास-प्राप्त होने के कारण অই शिव होता है ! इसके विपरीत जो शिव नहीं होता, बह कदाचित्‌ व्यावहारिक दृष्टि से सुन्दर हो सकता है। मूल्य-निर्णय की उपयुक्त तीनो दृष्टिया स्थूल नियम हँ । व्यापक दृष्टि से व्यक्तियो की जितनी बपेक्षाए होती है, उतनी ही मूल्याकन की दृष्टया हँ । कहा भी है-- न रम्य नाऽरभ्य प्रकृतिगुणतो वस्तु किमपि, प्रियत्व वस्तूनां भवति च छसु प्राहकवशात्‌ ।” प्रियत्व ओर अप्रियत्व ग्राहक की इच्छा के अधीन हैं, वस्तु में नहीं। निश्चय-दुष्टि से न कोई वस्तु इष्ट है और न कोई अनिष्ट । “तानेवार्थान्‌ द्विषत , तानेवार्थान प्रलोयसानस्य । निष्वयतोऽप्यानिष्ट, न विद्यते किचििष्ट वा --एक व्यक्ति एक समय जिस वस्तु से ढेंष करता है, वही दूसरे समय उसी मे लीन हो जाता है, इसलिए दृष्ट-अनिष्ट किसे माना जाए ? व्यवहार की दा्टि में भोग-विलास जीवन का मूल्य है | अध्यात्म की दृष्टि मे काम-भोग दु ख है । सौन्दर्य-असौन्दयं, अच्छाई-बुराई, प्रियता-अप्रियता, उपादेयता-हेयता आदि के निर्णय में वस्तु की योग्यता निमित्त बनती है। वस्तु के शुभ-अशुभ परमाणु मत के परमाणुओ को प्रभावित करते हैं। जिस व्यक्ति के शारीरिक




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