ग्रामीण अर्थशास्त्र | Gramin Arthashastra

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Book Image : ग्रामीण अर्थशास्त्र  - Gramin Arthashastra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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বি हिंदुस्तान में भिन्न-मिन्न प्रकार के गाँव रे या नाव द्वारा हो सकता हो या वे ऐसे सुभीते से दूर हों, वहाँ की बस्ती गाँव के बीचोबीच होती है । गाँव की बस्ती के चारों तरफ़ पोखर होते हैं जो भिन्न-भिन्न जगहों में तलेया या कुलम आदि के नाम से पुकारे जाते दै । इन्हीं पोखरों और तलैयों में से मिद्ठी निकाल-निकाल कर गाँवों के घर बनाये गये थे | श्रव इन्हीं के चारों तरफ़ गाँव का सारा कूड़ा-ककट ओर गाय-बैलों का गोबर फैंका जाता है। हर एक ग्रहस्थ अपने अपने धर के कूड़े आदि की अलग अलग ढेरी बनाता है। (मद्रास राज्य में कूड़े-ककट ओर गोबर बहुधा घरों के पिछुवाड़े की ओर रखे जाते हैं जहाँ कि कुछ साग-पात बोया जाता है। ) | इन्हीं पोखर आदि की ही कतार में आस-पास जो बगीचे और खुली हुई जगहें होती हैं, वहाँ उन लोगों का खरिहान रहता है | इसके बाद खेत मिलते है जो तीन घेरों में बँटे रहते हैं। बस्ती से क़रीब या दूर रहने के अनुसार ही इन खेतों के तीन विभाग किये जाते हैं। क्योंकि इसी पर उनमें खाद पहुँचाना निर्भर है | इन खेतों का पहला घेरा गोंडा, गोहन या गोयड कहलाता है, दूसरा मंका और तीसरा चेरा हार या पालू कहलाता है। आबादी भी जाति जाति के लिहाज़ से भिन्न-मिन्न- पहल्‍्लों में बंटी रहती है। प्रामीय अर्थशास्त्र में किसी भी गाँव के भिन्न मिन्न जाति के लोगों की व्यवस्था उस गाँव की उत्पत्ति पर निभर है |# #भारत के गॉँकों की उत्पत्ति नीचे लिखे हुये दो में से एक तरीक़े से हुई है । या तो किसी जाति के या एक पंथ के ही कुछ लोग एक जगह आकर बस गये हों और वही बस्ती आगे चलकर एक गाँव बन गया हो, या किसी एक आदमी ने किसी कारण से उस बस्ती को बसाया हो । बेडन पावल साहब ने पहले प्रकार के गाँवों को जातीय या साम्प्रदायिक गाँव ` ( 17109) शां114865 ) और दूसरे प्रकार के गाँवों को असाम्प्रदायिक ओर अजातीय गाँव कहा है । पहले प्रकार के गाँवों की उत्पत्ति के बारे में उनका कहना है कि या तो किसी जाति के या क्राफ़िले के लोगों ने---




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