भरतेश - वैभव भाग - 2 | Bharatesh - Vaibhav Bhag - 2

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Bharatesh - Vaibhav Bhag - 2  by दिग्विजय सिंह - Digvijay Singh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ९४) यह भी जाने दो (अंसछी बात तो और ही है | तुम्हरे भाई उद्धत नहीं हैं | मे उनको अच्छी तरह জানলা ছু | वे ठुग्दरे पस आनके लिये उरते हैं| कण तुझारी गमीरता कोई तामान्य है £ , राजन्‌ | इस जवानीम अगणित संपत्तिको पाकर न्यायनीताकी मर्यादाऋी रक्षण करनेके लिये तुम ही समर्थ होगये হী | तुम्हारे भाईयोको यह कहांते आसकता है ? अभीतक उन्होंने उत्तको नहीं सीखा है | इसलिये वे तम्हारे पातमे आनेके लिये रामीते हैं । रान्‌ ! तुम्हारे जितने भी सहोदर है वे अमी छोट है | उनकी उमर भी कुछ अधिक नहीं है। ऐसी अवस्थामे वे अभो बचपनकों नहा भूे हैं | इसीलिये ही थे बाहुआलिसे रते नदी, अपितु आप्ते इत ६ै। बाहुबलिके साथ किसी भी प्रकार अभिषेक व हसी खुर्शाप्त वर्ताव कर उससे बाहुबली तो प्रसन्न ही होता है । परतु तुम परागल्पनेका कभी पसंद नही. करगे य॒ वे अच्छौतरह जानते हैं| इसलिये तुम्हारे सामने नहीं आते है | वे अपने ही वर्तावसे स्वयं छान्जित है । इसलिये उस नव्म्नाके मारे तुम्हारे पास नही आते है | अभिमानसे तुम्हारे पास नह्ठी आते है यह बात नहीं। करू वे अपने आप आकर तुम्हारों सेवा करंगे, आप चिंता क्यों करते हैं ! मंत्रकि चातुयपूण वचनकों सुनकर चक्रवर्ती मन ही मन হই व्‌ ठीक है | ठीऊ है | मंत्री | तुम त्रिककुछ ठीक कह रहे हो ! हस प्रकार फहते हुए बांधवोमे प्रेम संरक्षण भरनेके मंत्रीके: तंत्रके प्रति मनमे ही नहत प्रन इए । इतनेमे मध्यरात्रिका समय होगया था । उस समय “जिनशारण'' शब्द को उच्चारण करते हुए भरतजी वहांते उठे व मंरी और लेश्कोके साथ शताब्यकी ओर चढे | उसे समय राजाल्यकी शोभा कुछ ओर थी। अनेक इस वहापर ष्यव्थित स्यदे श्वे हुए ये ! उतनी उकि) एष्ट चुन कये वप्र ह गरक ग्न इर ~ |




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