भारतीय परम्परा मे असहयोग | Bharatiya Parampara Mai Asahayog
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
186
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)बाद एक आनेवाली पीढी को देते गए। इस गुलामी की मानसिकता के आगे अपनी
विवेकशील और सेजस्वी बुद्धि भी दब गई। यूरोपीय या यूरोपीय जैसा লনা ही हमारी
आकाष्वा वन गई। देश को वैसा ही बनाने का प्रयास हम करने लगे। अपनी सरचनाएँ
पद्धतिया सस्थाएँ वैसी ही मन गईं ।
गाघीजी १९१५ में दक्षिण अफ्रिका से भारत आए सब भारत ऐसा था। उन्होंने
जनमानस को जगाया उसमें प्राण फूके उसकी मावनाओं को अपने वाणी और व्यवहार
में अभिव्यक्त कर भारत के लिए योग्य हज़ारों वर्षों की परम्परा के अनुसार व्यवस्थाओं
गतिविधियों और पद्धतियों को प्रतिष्ठित किया और भारत को फिर से भारत बनाने का
प्रयास किया। स्वतत्रता फे साथ साथ स्वराज को भी लाने के लिए वे जूझे |
परतु स्वतत्रता मात्र सता फा हस्तान्तरण (1ाषा$लि ० शण) ही वन कर रह
गया ¡ उसके साथ स्वराज नहीं आया। सुराज्य की तो कल्पना भी नहीं कर सकते।
आज की अपनी सारी अनवस्था का मूल यह है। हम अपनी जीवनशैली चाहते
ही नहीं हैं। स्थतत्र भारत में भी हम यूरोप अमेरिका फी ओर मुँह लगाये মত हैं। यूरोप के
अनुयायी बनना ही हर्मे अच्छा लगता है।
परन्तु, यह क्या समग्र भारत का सच हँ ? नहीं मारत की अस्सी प्रतिशत
जनसख्या यूरोपीय विचार और शैली जानती भी नहीं और मानती भी नहीं है। उसका
उसके साथ कुछ लेना देना भी नहीं है। उनके रीतिरिवाज मान्यताए पद्धतिया सब
दैसी की वैसी ही हैं। केवल शिक्षित लोग उन्हें पिछड़े और अधविश्वासी कहकर
आलोचना करते हैं उन्हें नीचा दिखाते हैं और अपने जैसा मनाना चाहते हैं। यही उनकी
विकास और आघुनिकताकी कल्पना है।
भारत वस्तुत तो उन लोगों का बना हुआ है उन का है। परन्तु जो यीस
प्रतिशत लोग हैं वे भारत पर शासन करते हैं। वे ही कायदे कानून बनाते हैं और न्याय
करते हैं वे ही उद्योग चलाते हैं और कर योजना करते हैं। वे ही पढाते है और नौकरी
देते हैं वे ही खानपान वेशभूषा भाषा और कला अपनाते हैं (जो यूरोपीय हैं) और
उनको विज्ञापनों के माध्यम से प्रतिष्ठित करसे हैं। यहाँ के अस्सी प्रतिशत लोगों फो ये
पराये मानते हैं योझ मानते हैं उनमें सुधार लाना चाहसे हैं और थे सुधरते नहीं इसलिए
उनकी आलोचना करते हैं। वे लोग स्वयं तो यूरोपीय जैसे पन ही गए हैं दूसरों को भी
वैसा ही यनाना चाहते हैं। वे जैसे कि भारत को यूरोप फे हार्थों बेचना ही घाहसे हैं. जिन
लोगों का भारत है वे तो उनकी गिनती में ही नहीं हैं।
इस परिस्थिति को हम यदि बदलना चाहते हैं तो हमें अध्ययन करना होगा -
पन्द्रह
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