हिन्दुस्तानी त्रैमासिक | Hindustani Traimasik

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Hindustani Traimasik  by विद्या भास्कर - Vidya Bhaskar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कबीर द्वारा प्रयुक्त कुछ तथा अप्रचलित शब्द पारसनाथ तिवारी सध्यकाल के प्रायः सभी प्रभुख हिन्दी-कवियों ने ऐसे अनेक शब्द अपनी रचनाओं मे प्रयुक्त किये हैं जो उस समय तो जवता में प्रचलित रहे होंगे, किन्तु आज उनका प्रचलन' कम होने के कारण और कोशझ्षों में भी अधिकांश का उल्लेख न होने के कारण उनके टीकाकारों को प्राय श्रम हो जाया करतः है । प्रस्तुत निकन्व मेँ कवीर दवारा प्रयुक्त कतिपय एसे ही श्षब्दों के उपयुक्त अर्थ ढूँढ़ने का प्रयास किया गया है। ये सभी शब्द उनके पदों से लिये गये हैं और स्थरू-निर्देश हिन्दी परिषद, प्रयाग विश्वविद्यालय, द्वारा प्रकाशित 'कबीर-ग्रन्थावली' के अनुसार हैं। विवेच्य शब्द ऋमराः निम्नलिखित है । (१) गिलारि पद २६-१०: 'बंभातें प्रगदयौ गिलरि। हिरनॉक्स सार॒योँ सख्त बिद्वारि॥/ ना० 4० समा द्वारा प्रकाशित कबीर-प्रन्थावली' के एक टीकाकार श्री पुष्पपाल सिंह ते उपर्युक्त पिति की जो टीका दी है उससे प्रतीत होता' है कि उन्होंने गिल्मरि का नृ्सिह अर्थ ग्रहण किया है ) किन्तु यह्‌ अथं अनुमानजनित्त है, यह आगे के विवेचन से स्पष्ट हो जाएगा। इस शब्द के पाठान्तरो से ज्ञात होता है कि बहुत पहले ही छोग इसके ठीक अर्थ से अनभिज्ञ होने के कारण इससे दुर भागने की कोशिश कर रहे थे। कबीरचौस से प्रकाशित 'शब्दावली' में इसका पाठान्तर मुरारि मिलता है। गुरु ग्रन्थसाहब' में उपर्युक्त पंक्ति का पाठ इस रूप में मिलता है : 'प्र भू धंभ ते सिकसे करि विसयार किन्तु पाठ निर्धारण-का यह एक मान्य सिद्धान्त है कि प्राय: अनंगढ़ और কিন্ত रुप आ्रचीनतर सिद्ध होते हैं--मले ही उनका: अर्थ हम सररता से न समझ पाएँ। मैंने कबीर- वाणी का पाठ-निर्णय करते समय इसी सिद्धन्त-के अनुसार ग्रिलारि' पाठ ग्रहण कर लिया; किन्तु उसके उपयुक्त अर्थ की चिन्ता भी स्वामाविक थी। इस शब्द के उचित अर्थ का समाधान 'बखना काणी' की एक पंक्ति से हो सकता है, जो इस प्रकार है ` अभा भांति क्लारया) ते जने प्रसाद्‌ 4 --स्कमी मनूछदास सम्पद्ति पथ १६५}




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