राजस्थान पुरातन ग्रन्थमाला | Rajasthan Puratan Granthmala

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Rajasthan Puratan Granthmala by फतहसिंह - Fatehsingh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावनां ७ “तदा ता तारमित्याहु रोमात्मेति बहुश्रुताः । तामेव शक्ति न्न्‌ वते हरीमात्मेति चापरे 1' इस प्रक्रिया को समझ लेने पर यह सुगमता से जाना जा सकता है कि उपासना के क्षेत्र मे इन दोनो वीजो का कितना महत्त्व है-श्रौर इनका स्वरूप कितना विशाल श्रौर व्यापक है। तात्रिक लोग जिसे विन्दु कहकर व्यवहार करते है उसका मूल इन दोनो बीजो का सम्मिलित रूप है । दूसरे छाव्दो मे इसको मायाशबल ब्रह्म कहते हे । शारदातिलक मे बिन्दु की उत्पत्ति का प्रकार यो बतलाया है-- “श्रासीच्छक्तस्ततो नादो नादाद्िन्दुसमद्‌भव. ।' तात्पर्य यह कि प्रणव के देवता शिव या रुद्र श्रौर मायावीज की देवता भुवनेश्वरी कहलाती हैं। इसीलिए मायावीज का दूसरा नाम भुवनेश्वरी बीज भी प्रचलित है। मायाबीज का वाच्य बिन्दु है | बिन्दु से ही, क्रमश इच्छा, ज्ञान श्रौर क्रिया्शक्ति के रूप में रौद्दो ज्येष्ठा श्रीर वामा शक्तियाँ प्रकट होती हैं। इनके द्वारा ही श्रनन्त शक्तिप्रो का श्राविर्भाव होता है। तान्त्रिक उपासना का श्राधार यह “बिन्दु' हो माता जाता है । यहा सक्षेप में इसके मूलरूप का परिचय करा दिया गया है। इससे श्रधिक, यहा कुछ लिखने का अ्रवसर न होने से यह प्रसग यही समाप्त किया जाता है । श्रागमोक्त उपासना का सार्ग--उपासना के द्वारा चतुर्वर्गफल-प्राप्ति का रिद्धान्त क्षास्त्रकारो ने स्वीकार किया है। किन्तु निगु ण ब्रह्म का कोई श्राधार न होने से उसक्रो उपासना कैसे समव हो सकती है ? श्रतएवे सगरुए-निगरण के भेद से ब्रह्म के दो रूप माने गये हैं-- 'चिन्मयस्याद्वितोयस्य निष्कलस्थाशरीरिण । उपासकाना कार्यार्थ ब्रह्मणों रूपकल्पना ॥! “-रामतापिनी, क्ुलाणंवतन्त्र _ . यहा चिन्मय का श्रयं ज्ञानमय श्रौर श्रढ्धितीय का श्रर्थ एक है । जेसा कि मार्कण्डेयपुराण में बताया है-- चितिरूपेण या इत्स्नमेतद्‌ व्याप्य स्थिता जगतु 7 इस रूप के प्रतिपादक श्रनेक वाक्य मिलते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि उपासना के लिए सग्रुण रूप की कल्पना शास्त्रसमत है। श्रम्निपुराण मे स्पष्ट निर्देश किया गया है--




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