अंगारे न बुझे | Angare Na Bujhe

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Angare Na Bujhe by रागेय राघव - Ragey Raghav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जाति और पेशा श देर बाद उसने देखा कि दारोगाजी अन्दर चले गये और वें आदमी भी एक-एक करके उनके पास बुलवा लिये गये । बाहर बैठा-बैठा वह ऊँध गया। गाँव के थानेदार बादशाह आदमी थे । उनके सामने सिर उठाना कोई साधारण वात नहीं थी । श्रव शाम हो गयी थी। कुछ देर णाद्‌ उसने देला कि गौव के लोग रम-राम करके चले गये | सब छूट गये थे । उसे दारोगा के खुले दिल परर विश्वास हुआ । एकान्त में अपनी कहानी सुनायी । दीन का महस्थ समझाया पर काम मुफ्त नहीं हुआ । शोर वह भी सिर्फ कोशिश करेंगे । खाली होकर जब वह घर लौथ तो खेले पर बैठकर पाँव फैला दिये | आज वह कुछ अधिक थका हुआ था। उसने एक लम्बी साँस छोड़ी शोर सिर से पगड़ी उतार कर धर दी | फिर श्रपनी कैंची फिरी खोपड़ी पर हाथ फेरा | और फिर उठ कर खाट पर लेट गया, जिस पर से उसके पाँव बाहर निकल रहे थे। बीची सामने आ गयी | उसने मुस्कराकर कहा---थ्राज बड़ी देर कर दी । कहाँ गये थे १ । उसे कुछ-कुछ मालूम था कि उसके पति का रामदास से मुकदमा. चल रहा था, जिसमें उसका पति हार गया है । अन्न वह इसी की सौंप में बैठा है। अपना अधिकार दिखाने को जो उसने प्रश्न पूछा वह ठीक' निशान पर बैठा । अब्दुल का सिर कुक गया । उसकी पहले तो हिम्मत ही न पड़ी, किन्तु उसके बार-बार पूछने पर उसे लाचार होकर सब सुनाना पड़ा | तरह चुपचाप उसकी ओर देखती रही । उसके चुप होते ही ज्ञी का चातु््य अत्र खु लपड़ा--मैं कहती थी न कि पहले मेरी बात सुन लो । झब हो गया ! उसका व्यंग सुनकर श्रब्दुल्ञ नें कहा--तो मैं करता भी क्या ! सत्रीने उसे घूर कर देखा | अब्दुल सहम उठा। तबख्री ने अपने दोनों हाथ' चला कर कहा--/वह सब बड़े लोगों के खेल हैँ | बकील से




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