शकुन्तला | Shakuntala

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Shakuntala by मैथिलीशरण गुप्त - Maithilisharan Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ ४ ] करता है तू पश्चशर ! विद्ध यदपि मम चित्त | ह कृतस तेरा तदपि मँ इस काय्यै-निमित्त में इस कार्य-निमित्त मानता हूँ गुण तेरा, इस प्रकार उपफार सार! होता है मेरा । जिस सुमुखी का विरह धेथ्य मेरा हरता है, उसके ही मिल्ताथ प्रेरणा तू करता है ॥” [ ५ এ इस प्रफार से घूमते छोड फाम सब श्प्रौर। देखी दरम ने निज प्रिया एक मनोहर टोर॥ एक मनोहर ठोर पड़ी पहच-शय्या पर, श्चीण कटाधरकला-सरश तो भी प्रति सुन्प्र । लगे देसने नृपति उसे तन बड़े प्यार से, ইহ न फोर सके खड़े हो इस अफार से । [ ६ ] जैसे उसके घिरद्‌ में व्याकुल ये दुष्बन्त। बह भी थी उनके दिना व्यप, पिकर अत्यन्त] व्यप्र-विकल अत्यन्त, नं धीरज धरती थी; प्रेम-सिन्धुल्यडवामि-त्रीच जू जल मरती थी ॥ * सथ शीतऊ उपयार ` दृशन करत में एऐसे-- नव॑ सलिनी को सुद्दिन दद्न फरता है जैसे ॥ पत्र १२




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