व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र | Vyakhyapragyapti Sutr
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
35 MB
कुल पष्ठ :
893
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)जैन भ्रागमों में उस युग की सामाजिक, राजनैतिक, धामिक, सांस्कृतिक भ्ौर भ्राथिक परिस्थितियों का
भी यत्र-तत्र चित्रण हुआ है ! समाज भौर सस्कृति का अ्रध्ययत करने वाले शोधाथियो के लिए यह सामग्री बहुत
ही दिलचस्प श्रौर ज्ञानवर्धक है । भाषाविज्ञान और भ्रन्य भ्रनेक दृष्टियो से जैन प्रागमों का प्रध्ययन चिन्तन की
श्रभिनव सामग्री प्रदान करने में सक्षम है ।
जेन आगमो का सूल स्रोत वेद नहीं
कितने ही पाश्चात्य झौर पौर्वात्य विज्ञो का यह भ्रभिमत है कि जैन श्रागम-साहित्य मे जो चिन्तन
श्राया है, उसका मूल स्रोत वेद है । क्योकि वर्तमान में जितना भी साहित्य है, उन सबमे प्राचीनतम साहित्य वेद
है । ऋग्वेद विश्व का प्राचीनतम ग्रन्थ है किन्तु श्राधुनिक श्रन्वेषणा ने उन विज्ञों के मत को निरस्त कर दिया है ।
मोहनजोदडो भौर हडण्पा के उत्खनन मे प्राप्त ध्वसावशेषों ने यह सिद्ध कर दिया है कि झ्ाार्यों के भारत मे श्राने के
पूर्व भारतीय सस्कृति और धर्म पूर्ण रप से विकमित था ।* शोधार्थी मनीषियो का यह मानना है कि जो प्राय
भारत में बाहर से आए थे, उन भ्रायों ने वेदों की रचना की । जब वेदों मे भारतीय चिन्तन का सम्मिश्रण हुमा
तो वेद जो ग्रभारतीय ये, वे भारतीय चिन्तन के रूप में विज्ञों के द्वारा मान्य किए गए । श्रार्य भ्रमणशील थे,
भप्रमणशील होने के कारण उनकी मसस्कृति श्रच्छी तरह से विकसित नहीं हुई थी जबकि भारत के प्राद्य निवासियो
की सस्कृति स्थिर सस्कृति थी । वे एक स्थान पर ही श्रवस्थित ध, इस कारण उनकी सस्कृति श्रार्यों की सस्कृति
से श्रधिक विकसित यी, वह् एक प्रकार से नागरिक सस्कृति धी । बाहूरसे प्राने वाने भरार्यो की श्रपेक्षा यहाँ के
लोग श्रधिक सुसस्क्ृत थे । जब हम वेदो का सहिताविभाग और ब्राह्मण ग्रन्थो का गहराई से श्रध्ययन करते ই লী
उन ग्रन्थों में श्लार्यों के सस्कारो का प्राघान्य दुगूगोचर होता है, पर उसके पश्चात् लिखें गये श्रारण्यक, उपनिषद्,
धर्मशास्त्र, स्मृतिशास्त्र रादि जो वँदिक परम्परा का साहित्य है, उसमे काफी परिवतंन हुआ है । बाहर से झ्राए
हए श्रार्यो ने भारतीय सस्कारो को इस प्रकार से ग्रहण किया कि वे भ्रभारतीय होने पर भी भारतीय बन गए । इन
नये सस्कारो का मूल प्रवैदिक परम्परा में रहा हुभ्रा है । वह प्रवैदिक परम्परा जैन प्रौर बौद्ध परम्परा है। भ्रवेदिक
परम्परा के प्रभाव के कारण ही जिन विषयों की चर्चा वेदों में नहीं हुई, उनकी चर्चा उपनिषद् भ्रादि में हुई है ।
वेदों में आत्मा, पुनर्जन्म, व्रत श्रादि की चर्चाए नही थी, पर उपनिषदोमे इन पर खूलकर चर्वाए हई है प्रौर
प्राचारसहिता में भी परिवर्तत आया है। इस परिवर्तन का मूल श्राघार श्रवंदिक परम्परा रही है । दूसरे शब्दो
में यो कहा जा सकता है कि वेदों के पश्चात् जो ग्रन्थ निस्तित हुए उन पर श्रमणसस्कृति की छाप स्पष्ट रूप से
निहारी जा सकती है ।
वेदो मे सुष्टिनत्व कै सम्बन्ध मे चिन्तन किया गया है तो श्रमणसस्कृति मे ससारतत््व पर गहराई से
विचार किया गया है । वैदिक दृष्टि से सृष्टि के मूल मे एक ही तत्त्व है तो श्रमणसस्क्रति ने ससारतत््व के मूल
में जड़ और चेतन ये दो तत्त्व माने हैं । बेदिक परम्परा में सृष्टि कब उत्पन्न हुई ” इस सम्बन्ध में विचार व्यक्त
किया गया है तो श्रमणसस्कृति की दृष्टि ने ससारचक्र अभ्रनादि काल से चल रहा है। उसका न तो झ्रादि है प्रौर
न अन्त ही है। वेदो मे प्रहिसा, सन््य, भ्रस्तेय, ब्रह्मच्य भौर भ्रपरिग्रह इन महाव्रतों की चर्चा नहीं हुई है । यहां
तक कि हिंसा श्रौर परिग्रह पर बल दिया गया है। वाजसनेयीसहिता में पुरुषमेधयज्ञ मे १८४ पुरुषों के बध
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२ वाजसनेयीसहिता, ३०
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