महापुरुषों की जीवंगाथाएं | Mahapurusho Ki Jivangathaye

Mahapurusho Ki Jivangathaye by स्वामी भास्करेश्वरानन्द - Swami Bhaskareshvaranand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रामायण भज्बडिन कर्‌ सोना से वोट, “ देवि! मुझे आज आपके कुछ अनिष्ट होने की आशा होरही है। इसछिये आप इस मत्पूत अम्नि-व्त्त के बाहर पदार्पण न कं---अन्यया आपका कुछ अश्युम घटित जायगा । ” इधर राम ने अपने एक तीझ्ण शर से उस माया-मृग को ग्द कर दिया आर्‌ बह तस्क्राउ अपना स्वामात्रिक रूप धारण कर पश्चच को प्राप्त होया | उसी क्षण पण-बुठि के समीप राम का यह आर्व-छर सुनाई पड़ा, “दौडो ठक््मण, मेरी सहायता के लिये दोडो |” मीता ने यह सुनकर ठक्ष्मण से तकाछ राम कौ सहायतार्थ बन में जाने को का | टस्मण बोडे, ¢ देमि ! यड रामचन्द्र की कण्ट-प्वनि नहीं हे । ” किन्तु सीता के यार्‌ वार्‌ सानुकरो अनुरोध करने पर छक्ष्मण राम की खोज में चन की ओर चछे गये | उनके जाते ही राक्षस-राज रायण साउनयेप में ऊुटि के द्वार पर आ खड़ा हुआ और मिक्षा-याचना करने डगा। सीता वोर्ठी, “ आप कुछ क्षण प्रतीक्षा करें | तय तक मेरे स्वामी आजाते है--फिर मैं आपको ययेष्ट मिक्षा दूँगी | ” साधु बोण, “ मै अयन्त क्षुषा्त हूँ, देगि ! एक क्षण भी अतीक्षा करने में असमर्थ हैँ | आप मुझे जो आपमे पास हे वही देदें |” इस पर सीता कुटि में रखे हुये जो थोड़े बहुत फछ थे उन्हें बाहर छे आई | जब छम्म-वेष धारी साधु ने देखा कि वे अप्नि- बत्त के भीतर से ही मिक्षा दे रही हैं तो पद अत्यन्त विनय-यूक बोछा, “ देवि ! कापराय-वस्मधारी साधुओं से क्या भय ! आप बाहर पदार्षण कर सुगमता से भिक्षा प्रदान करें | ” इस अनुनय- १३




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