रवीन्द्रनाथ के निबन्ध भाग - 2 | Ravindra Nath Ke Nibandh Bhag - 2

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Ravindra Nath Ke Nibandh Bhag - 2  by अमृत राय - Amrit Rai

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रवीद्धनाय के प्रवन्ध और गद्य शिल्प १७ है) और इस अर्थ में उनकी रचना व्यक्तिगत या व्यवितनिर्भर होती है, उनके व्यक्तित्व का दर्पण भी उसे कह सकते हैं। मान्तेन मे वेधड़क 'मैं' शब्द का व्यवहार किया है, रवीस्द्रनाथ का 'हम' भी 'में' का ही एक चतुर और विनयी रूप है; और यह 'मै---गीतिकाव्य के ववता के समान ही--देश-काल के विशेष लक्षण द्वारा चिह्नित होने पर भी विश्व-मानव का प्रतिभू है। जीव-विज्ञानी जब सर्वभक्षी प्राणी की पाकस्थली के सम्बन्ध में 'प्रवन्ध' लिखता है तव उसके कवित्व में एक ही अग को उद्योग करना पडता है, किन्तु अन्य जिस प्रकार के प्रवन्धों की हम चर्चा कर रहे हैं, वे लेखक की समस्त सत्ता के भीतर से निकलते हैं; वह केवल बुद्धि या चित्न का ही नही समस्त प्राण का भी अन्त.करण का काम होता है; जो आदमी अपनी नन्‍ही बिटिया के विनोद के लिए फर्श पर घुटनियों चलता है, सर्दी के भय से जाड़े-भर सनातन नही करता, अवसर पाते ही महाभारत पढ़ता है, अलकतरे को पसंद करता है--वह इद्वियवद्ध असंगतिपूर्ण मनुष्य भी उससे संसरित और प्रति- फलित हो रहा है। जिसको हम वैज्ञानिक दृष्टि कहते हैं वह इस विराट्‌ जगत्‌ की एक विच्छिन्न कणिका के ऊपर ठहरी रहती है, अन्य सब चीजों का अस्तित्व वहाँ पर लुप्त हो जाता है; निरंजन ज्ञान उसी दृष्टि से पकड़ मे आता है। हम जिनको प्रवन्धकार कहते हैं वे इस विच्छेद-प्रवण एकान्तिक दृष्टि से वचित होते है। जगत्‌ “अपने विविध उपादान लेकर उनकी चेनना के ऊपर अनवरत आपात कर रहा है; सुख से, दुःख से, आकांक्षा से स्पदित रकत-मांस के मनुष्य को वे कभी नही भूलते-- और वही उनकी रचना का रूप ले लेती है--सत्य नही, जीवन्त, शिक्षणीय नही, आनंददायक; उसमें कोई अमोघ युक्ति नही होती, कीई धर व मीमांसा नही होती, निश्चित रूप से वे कुछ भी नही कहते; लेकिन ऐसे कितने ही इमित विलेर देते है जो सहृदय पाठक के मन में बीज के समान उड़कर पहुँच जाते है--जो सभव हुआ तो जड़ पकड़ लेता है और कभी किसी दिव एक नई भावना का फल भी लगा देता है। विज्ञानी के समान वे कोई प्रस्तुत सत्य लाकर हमारे हाथ में नही दे देते --दे सकते भी नही; वे पाठक को अपना सहयोगी बना लेते हैं; जिस वात को वे आभातत में कहते हैं, उपमाओं में कहते हैं, गुंजज और वर्णहिल्लोल में कहते हैं उसका “अर्थ! पूर्णता पाता है पाठक के मन में---यदि पाठक अयोग्य नही है । मैं क्या अतिरंजना कर रहा हूं ? क्‍या मैं कोई बहुत वड़ा दावा कर रहा हूं ? लेकिन मैं कोई आदर्श तो स्थापित नही कर रहा हैं, रवीन्द्रनाथ के ही वँशिष्ट्य की चर्चा कर रहा हूँ) यह प्रवन्ध--या श्रबन्ध का यह विशेष प्रकार---य्ूूरोप मे




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