तीर्थकर | Tirthakar
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
8 MB
कुल पष्ठ :
222
श्रेणी :
हमें इस पुस्तक की श्रेणी ज्ञात नहीं है |आप कमेन्ट में श्रेणी सुझा सकते हैं |
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about नेमिचन्द्र जैन - Nemichandra Jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)^ क,
সত পা
व
नहा हैं। यह सावन -
बुखार नहीं है । वुखार हैँ तो सारे शरीर में है और नहीं है तो मे
विन्ान है; परन्तु मनुष्य ने अपने पल बाँट लिये हैं। उसकी इबादत मे घंटे पावा-पत्िन्न हैं
५
আহ वाकी केषंटों को उसे परवाह नहीं है । सूरि कहते है एना नहीं चयेमा গাঁ
सारे समय जागरूक रहना होगा। उन्होंने एक बढ़िया फारमूला दिया हे
अच्छ स्वास्थ्य के लिए अर्यतत बरनि
अच्छे जीवन के लिए অলিল্লা, ग्रेन आर नहु
आत्म विकास के लिए गृद्ध चिनार शोर भातार
वे पूरे जीवनं यह् मानते रहे कि गुणविहीन नर पशु भैः दामान है । অলিনা ন
कल्पवक्ष की कल्पना की है। उनकी माइथॉलाजी--पुराणों में 9:छ स्वर्ग ऐसे हैँ जहाँ
८
के देवताओं को सारी उपलब्धियाँ कल्पव॒क्ष से होती है। अब आप देवता बन जाएँ
कभी तो स्वर्ग के कल्पवक्ष का आनन्द लीजियेगा; लेकिन मनुण्य के पास तो ऐसा
कोई पेड़ नहीं है जो उसकी इच्छाओं की पूि कर दे | बद्चि कोई 1
सूरिजी की भाषा में--मनुष्य का कल्पवृक्ष है संयम | ঘন জাল ৃ
वाक्य आपको पुरूषाय के मैदान में खड़ा कर देता है। गही पुर्पाभ उनः गहापूर्प
ने जीया ओौर अपनी करनी से शब्दों को पृष्ट करतागया। श्री नाजन््रमुरियी नै
वहुत लिखा है । जीवनं जीते गये ओर अनुभूत वाते लिरा गभे । वे जवः
थे । शब्द की छैनी लेकर जमीन गढ़ते में लगे थे । उनके छझारा ध्यप्ता विचारों का
थोड़ा जायजा लीजिये :
हाथों की शोभा सुकृत-दान करने से, मस्तिष्क की शोभा ह॒र्पोल्लाशपूर्बर
स्कार करने से, मुख की शोभा हित-मित और प्रिय वचन बोलने से, कानों पी शोभा
आप्त पुरुषों की वचनमय वाणी श्रवण करने হা, পন নদী জানা
सद्भावना रखने से, नैतो की शोभा अपने इष्टदेवों के दर्शन करने से हू ।
इन वातो को भली विधि समज्ञ कर जो इनको कार्यरूप में परिणत कर लेता
दै वही अपने जीवन का विकासः करताहै।
शास्तरकारों ने जाति से किसी को ऊंच-नीच नहीं माना है, किन्तु विशुद्ध आचार
और विचार से ऊंच-नीच माना है। जो मनुष्य ऊँचे कुल में जन्म लेकर भी
अपने आचार-विचार घृणित रखता है वह तीच है और जो अपना आचारविचार
सराहनीय रखता है वह नीच कुलोत्पन्तन होकर भी ऊँच है।
दूसरों के दोष देखने से कुछ हाथ नहीं आयेगा।
परिग्रह-संचय शांति का दुश्मन है, अधीरता का मित्र है, अज्ञान का विश्वाम-स्थल है,
बुरे विचारों का क्रोड़ोद्यान है, घवराहट का खजाना है, लड़ाई-दंगों का निके-
तन है, अनेक पाप कर्मों की कोख है ओर विपत्तियों की जननी ह ।'
धीमद् राजेच्यूरीश्वर-विशेषांक/१७
User Reviews
No Reviews | Add Yours...