संस्कृत - साहित्य | Sanskrit-sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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द करा देना प्रसगानुकूल ही होगा । अन्यौक्ति का सेद्वान्तिक स्वं व्यावहाशिक विवेचन उन्हीं तथ्यों में से स्क है | सस्कृत-काव्यशास्त्र का उदय आचार्य मरत के नाट्यशास्त्र से ईं०पु० छितीय शती छोता हे । इसी प्रकार उसकी चरम परिणत्ि भी पण्डितराज जगन्नाथ के ठक्नणा ग्रन्थ रसगगाघर में होती है सत्रहवी शती ईंसवी महरत और पण्डितराज रे का मध्यवर्ती दी सहग्र वर्ष ही स्थूठ रुप से काव्य-शा स्त्रीय सिद्धान्तों के उद्मव तथा विकास का समय है । काव्यात्सा की मान्यता को ही अपना ठक्य बनाकर पनपन वाछ़ै जाने कितने सिद्धान्त इसी युग की विरासत हैं । महरत का रस-सम्प्रदाय मामहादि का अलकार- सम्प्रदाय छठवीं शती इं० वामन का रीति-सम्प्रदाय आठवीं शती इईंसवी आनन्दवर्धन का ध्वनि सम्प्रदाय नवी-शती का उत्तराद्ध बुन्तक का वक़ो क्ति-सम्प्रदाय दशप शती इं० तथा कमन्द्र का आंचित्य-सम्प्रदाय ग्यारहवीं शती इईँ० सब इसी युग की दाय है | प्रस्तुत स्थठ पर केवल अलकार-सम्प्रदाय पर प्रकाश डाला ज्ञायगा क्योकि अन्यो किए के सैदान्तिक-विवैचन से हमारा तात्पर्य उसके आलकाशिक-विवेचन से ही हे । अलकार-सम्प्रदाय के प्रमुख आचार्य मघाविनु-मामह-दण्डी-उद्मट तथा रुद्रट हैं । नाद्य शास्त्र मे आचार्य मरत ने अन्य काव्य तत्त्वीं के साथ ही साथ चार अलकारों कौ मी मान्यता दी थी-- उपमा रूपक दीपक ओर यमक । इनमें से प्रथम तीन अथाछिकार तथा अन्तिम शब्दालकार है । मख के पश्चात्‌ मेघाविद का नाम आता हे । मेघाविन का काठ तथा कृति यथपि दौनों अज्ञात हैं तथापि आचार्य मामह के साच््य पर उनकी स्थिति दूसरी शती ईं० के आस पास स्वीकार की जा सकती हें | मामह ने उलंकारों के विषय में अपने किसी पुर्ववर्ती आचार्य का हवाला दिया है जो केवठ पांच अलकार आनुप्रास सहित मरत प्रौक्ता चार अलंकार मानते थे चुकि मामह स्वयं अड़तीस अलंकार स्वीकार करते हें अत निश्चित हे कि पांच ब्ठकारों की मान्यता देने वा आचार्य मरत-मामह से मिनन तथा उन्हीं के मध्यव्ती रहे होगे || ह् कुप्रास सयमको रुपक दीपकौपमे । इति वाचामठकारा पचवान्येरु दाइता 1 ।काव्या० २1४




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