संत समागम [ भाग २ ] | Sant-Samagam [ Part-2 ]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(५) क्या हमारी स्व्रामाविक अमिलापा की पूर्ति के लिये यह संसार { जो प्रतीत होता) सम्पदे यदि बेचाए संसार समर्थं होता, तो क्या दम इसके होते हुए मी निर्बछतता एवं पप्तन््ता सादि बन्यनें मे ये दते १ कदापि नदी ।! मको परतन्त्रता निर्बठता आदि बन्धनों से छुटकारा पाने লী ভি कैवक भपनी भोर देखना होगा । दम उसी दोष का अन्त कर सकते हैं, जो हमारा बनाया हुआ है, क्योंकि किसी और की चनाई हुई वस्तु को कोई और नहीं मिटा सकता । जब हम विचार करते हैं, तो यद्दी ज्ञात होता है कि हमारी प्रत्येक प्रशत्ति हमारी स्वीकार की हुई अद्वंता के अनुरूप ही द्वोती है, पोषि वैचारी प्रृत्ति तो जन्त मे केवठ स्वीफार की इई मद॑ता कोष्ट पुष्ट करती है। शतः अर्ता से भिन प्रवृत्ति न्दी शे सकती । जव तकृ हम दोपयुक्त अता फो स्वीकार ত্র रगे कम तर दोप-युक्त प्रवृत्ति होती द्वी रहेगी भर्षत्‌ मिट नहीं सकती | स्वीकुत की हुई अद्वंता को अपने से अतिरिक्त जर कोई परिवर्तित नहीं कर सकता, कर्षात्‌ अस्वामाविक काल्पनिक सदोष स्वीकृति क्त म स्वयं स्वतन्त्रवापूर्वक मिटा सकते हैं । दोप-युक्त कहता के मिट जाने पर दोप युक्त प्रचि शेष नहीं रहती । क्योंकि कारण के बिना कार्य किसी मी प्रकार नहीं हो सकता | झतः यद्द निर्षिवाद सिद्ध हो जाता दै कि दम सपने बनाये हुए दोष का स्वये अन्त कर सकते हैं, भर्पत्‌ किसी




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