प्रचीन संस्कृत नाटक ग्रंथमाला -60 | Prachin Sanskrit Natak Granthamala-60
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
9 MB
कुल पष्ठ :
474
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)= ब्राबीन संस्कृतन््नाटक
हैं। नाटकीय वाक्यो को कलात्मक विधि से जोड़ना सन्धि है। सन्धि का इस प्रसंग
मे भयं जोड्ना है । भमिनवगृप्त ने सन्धि की ध्युत्यति करते हुए कहा है--
पेनार्थादयवा सन्धोयमानाः परस्परमद्धंश्च सन्धय इति समास्या निरश्ता।
भारती ना० शा० १६.३७
कार्य की प्रस्येक प्रवस्था के भनेक भंग हो जाते हैं। ऐसे प्रत्येक भग का
वर्णन एक-एक অন্তত में होता है। कुछ सन्ध्यज्भ कार्यपरक होते हैं, शेष पात्रों या
परिस्यितियों के कलात्मक निदर्शन होते हैं ।
पञ्च सन्धियाँ हैं--मुख, प्रतिमुख, गर्म, विमर्श भौर निर्वहण । मुख सन्धि में
प्रारम्मोपयोगी भ्राशि संगृहीठ होती है 1 इसमे क्या का वोज डाला जाता है। इस
भक्रिया को बीज कौ उत्पत्ति कहते हैं। प्रतिमुख सन्धि में वोज उसी प्रवार
भद्धूरित प्रतीत हौता है, जैसे मिट्टी मे छिपे बीज का भड्भूर मिट्टी के ऊपर दिखाई
देता है । प्रतिमुख में प्रति का प्रप॑ है प्राभिमुस्य भर्थात् बीज के विकास का सामने
पाना, ययपि इसमे कहीं-कही बीज-विधयक चर्चा अन्तरित रहतो है। रलावलो मे
फामपूजन प्रकरण में दीज का यद्यपि विकास होता है, किन्तु ऐसा लगता है कि बीज
से इसका कोई सम्बन्ध ही नहो है। इस प्रकार मुखसन्पि में बीज का उद्घाटन तो
होता है, किन्तु वह कभी-कभी 'नष्टमिव' भर्थात् परित्यकत सा प्रतीत होता है| इसमें
यत्न नामक प्रवस्था के কাধতঘাঘাহ হীন ই । মনি নীল कौ उत्पत्ति भौर
उद्षाटन के पनन्तर उद्मेद होता है 1 इसमें प्राप्याशा नामक भवस्था के कार्यब्यापार
के द्वारा बीज,का उद्धेद (फलजननाभिमुद्यत्व) प्रतीत होता है। उद्मेद मे नायक के
प्रभास से फलप्राप्ति दिखाई देती है, किन्तु प्रतिरोधी के व्यापार पते फल की भप्राष्ति
रहती है 1 विमं सम्षिमे किसी लोभ, कोष या व्यसनके कारण फलप्राप्तिमे जो
बाघा भाती है, उसको दूर करके प्राप्ति का निश्चय प्रदर्शित किया जाता है ॥ निर्वेदण
नामक सन्धि में नायक को फल की प्राप्ति होती है ।
दशरूपक के झनुसार सन्धियों का भर्थप्रकृतियों से भी यायासंख्य होता है।'
यह चिन्त्य है, क्योकि नाटकों में भी पताका भोर प्रकरी नामक पर्थप्रकृतियों का होना
भावश्यक नही है । भभिनवगुप्त ने स्पष्ट कहा है--
१. प्रत्येक रूपक में प्रतिनायक या प्रतिरोधी का होना प्ावश्यक नहीं है जहाँ प्रति-
नायक महीं होता, वहाँ परिस्थितियाँ या कोई भन्य व्यक्ति ही विरोधी होकर पप्राप्ति
का कारण बनते हैं । जैसे भमिज्ञानशाडुन्तल में ।
३. भयंप्रकृतयः पंच पंचावस्थासमन्विता: ।
यपथासंख्येन जायन्ते मुखाद्यापंचसन्धया: ॥ १-२२
किन्तु साथ ही इस ग्रन्थ से कहा गया है कि गर्मसन्धि में पतादा का होता घ्रादश्यक
मही है । 'पताका स्पान्नवा' १.३६
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